Thursday, December 31, 2009

बस थोड़ी देर और...

हालाँकि रात के तलवों में
चुभा पाला अभी नुकीला है,

और सुबह जब भी मुंह खोलती है
धुंध उगलती है

वक्त के माथे पर ठंड का एक बड़ा सा गूमड़ है
और पीठ पर कोहरे का भारी बोझ ,

पर फिर भी
वक्त अभी डटा हुआ है
और कहता है सूरज लेकर ही आयेगा ......
नयी ऊर्जा का ,
नये रंग का ,
नये साल का .......

वक्त की इस कोशिश में
मै साथ हूं उसके,
और मै जानता हूँ आप सब भी जरूर होंगे


मुझे, आप सबकों और वक्त कों
इस कोशिश के लिए
शुभकामनाएं ....................


Sunday, December 27, 2009

ये दर्द रोज कम होता जा रहा है !!

सूरज जल्दी-जल्दी डूब कर
शाम कर दिया करेगा
और शाम अपने तन्हाई वाले हाथ रखने के लिए
मेरे कंधे नही तलाशा करेगी

तमाम खीझ और उब के बावजूद
आत्मा बार-बार लौटा करेगी
वासना से लदी उसी सूजन वाले शरीर में
जिसे घसीटते रहने में

अब कोई उत्तेजना बाकी नही होगी

बिना तलब के हीं
मुझे जला लिया करेगा
थोडी-थोडी देर पे एक लंबा सिगरेट
और पी-पी कर मेरे ख़त्म होने का
इंतज़ार किया करेगा

रात पे कान रख के
मैं सहलाना चाहूँगा झींगुरों की आवाजें
और ख़राब होती टियुबलाईट की आवाज भी
मेरे मौन में कोई छेड़ नही कर पाएगी

आँखे जाग कर नींद देखने की
हर रोज कोशिश करेगा
पर कोई पागल सा सपना
उन्हें अफीम दे कर सुला दिया करेगा हर रोज

तुम चली गई हो
कबूल करता है ये मन अब,
यह हथेली भी अब मान गई है

और काम चला लेती है
बिना तेरे स्पर्शों के

पर जब भी सोंचता हूँ कि ये जो दर्द है हिज्र का
वो भी चला गया तो ...
तो ऐसे हीं ख्याल आते हैं...
और ये दर्द है कि रोज कम होता जा रहा है !!

Tuesday, December 22, 2009

रातों को क्या फ़िर बातें किया करेंगे हम ! !

देह के बाहर जाकर
एक बेचैनी

चहलकदमी करती है देर रात तक,
शरीर में जरा दम सा घुटता है

बाहर बरामदे में
बिना बांह वाली एक कुर्सी है
जिस पे वो बैठ जाती है जरा-जरा देर चल कर
वहां एक सिगरेट लेने लगती है धुंआ अपने भीतर

शरीर से खींच-खींच कर

अन्दर धुंआ है अभी भी बहुत सारा और
बाहर धुंध पसरी है पलकों के क्षितिज पर,
परन्तु दृढ़ता से यह कहा जा सकता है कि
एक ख्वाब अभी भी टिमटिमा रहा होगा वहां
हालांकि वह बिना चाँद के होगा
पर उसके लिए यह दृढ़ होने का नही वरन कांपने का वक्त है
अचानक से नींद खींच कर उतार जो दी गई है

वक्त को काट दिया गया है

पर अभी भी वो बचा हुआ है
और जितना भी अब बचा है
शायद उसे और नही काटा जा सकता

तुम्हें गर ये मालुम होता कि
रात कितनी बची हुई है
और कि वक्त को अब और काटा नही जा सकता
तो तुम कभी ये नही कहती
कि रातों को बातें नही किया करेंगे हम

Tuesday, December 15, 2009

मैं लौटूंगा !!!

सबके प्यार और समझ के लिए सबका शुक्रिया !! नंदनी का विशेष रूप से...मैंने पिछला पोस्ट हटा दिया है..शायद अब उसकी जरूरत नहीं है।

सभी लौटेंगे जानता हूँ...
मेरे लौटने से पूर्व मेरी कविता लौट रही है...

कुछ दुःख
एक झुण्ड में चुप चाप जा रहे थे
सड़क के किनारे उन्हें
जलता हुआ एक अलाव मिल गया है
घेर कर बैठ गए हैं सब
पर अभी भी चुप हैं
सर्दी बहुत है ना !!!

शायद जल्दी हीं गर्मी लौटेगी
इस कविता की तरह हीं !!!

Wednesday, December 9, 2009

मैं लौटूंगा !!!!

सबके प्यार और समझ के लिए सबका शुक्रिया !! नंदनी का विशेष रूप से...मैंने पिछला पोस्ट हटा दिया है..शायद अब उसकी जरूरत नहीं है।

सभी लौटेंगे जानता हूँ...
मेरे लौटने से पूर्व मेरी कविता लौट रही है...

कुछ दुःख
एक झुण्ड में चुप चाप जा रहे थे
सड़क के किनारे उन्हें
जलता हुआ एक अलाव मिल गया है
घेर कर बैठ गए हैं सब
पर अभी भी चुप हैं
सर्दी बहुत है ना !!!

शायद जल्दी हीं गर्मी लौटेगी
इस कविता की तरह हीं !!!

Sunday, December 6, 2009

मैं, रात का ये पहर और वह

रात के इस पहर में
जिसके बारे में कोई विशेषण मुझे अभी नहीं सूझ रहा है
और ना हीं बहुत स्पष्ट है कि
कविता के शुरुआत में इसे कितनी अहमियत दी जानी चाहिए
और कितना विशेषण
क्यूंकि हमेशा की तरह इस कविता में भी
मुझे तुम्हारे बारे में कहना है
या फिर तुम्हारे बिना मेरे बारे में

फिर भी अगर बयान करें तो
यह कहा जा सकता है कि इस पहर में
शराब पीकर नालियों में या सड़क के किनारे
अचेतन हालत में पड़े होंगे कुछ लोग
और हॉस्टल के कुछ आवारा लड़के
सिगरेट की तलब में
बाइक पे सवार होकर
आ रहे होंगे रेलवे स्टेशनों की तरफ
और कुछ बेघर मजदूर किसी पुल की फूटपाथ पे
पतली कम्बलों के नीचे बार बार करवट बदलते होंगे

इस पहर में
तुम्हारे बारे में कुछ कहने के लिए
बहुत सोंचना पड़ रहा है
क्यूंकि तुमसे बिछड़ने के इतने लम्बे समय बाद
मुझे जरा भी भान नहीं कि
रात क्या रखती है तुम्हारे बिस्तर पे
जिसपे तुम सोती हो
और इस वक्त तुम नींद में होती हो या ख्वाब में
या अपने पति के प्रेम-पाश में
या फिर मुझे याद करती हुई जगी होती हो

अपने बारे में कहूं तो
मैं एक लगभग सुनसान प्लेटफार्म के
पत्थर की ठंढी बेंच पे
अपनी छाती पे दोनों हाथ बांधे
ये सोंचने के लिए बाध्य हूँ कि
इन बंधे हुए बाहों के बीच तुम्हारा होना
एक जरूरी बात थी जो कि हो नहीं पायी

मैं अक्सर आ कर बैठता रहा हूँ
प्लेटफार्म की इस ठंढी बेंच पे
क्यूंकि मुझे लगता रहा है कि
खाली प्लेटफार्म पे किसी दिन एक घर मुझे पा लेगा
और उस वक्त ऐसा नही हो कि उसे मुझे ले जाना हो
और कोई ट्रेन नही हो

मुझे ये करीब-करीब पता है कि
प्लेटफार्म के बिल्कुल उस तरफ़ एक जर्जर हो चुकी संरचना है
जिस पे ' abondoned ' लिखा है
मैं वही हूँ
पर फ़िर भी जाने क्यूँ इंतज़ार है कि
तुम मेरे छाती के सफ़ेद बालों में
अपनी उँगलियाँ घुमाते हुए प्यार करने एक दिन अवश्य आओगी

Thursday, November 26, 2009

मुझे हीं, अकेले !

ये दर्द मेरा है

मुझे हीं
बहना होगा
कटे नब्जों से
पहले धार में और फिर
टप-टप, टप-टप


मुझे हीं
गिरना होगा
उस ऊँचे पहाड़ से
लगायी हुई छलांग में
और उस वक़्त मेरा भार
दर्द के भार उतना हीं होगा

मुझे हीं
चले जाना होगा
किसी दिन अँधेरे मुंह उठकर
चुप-चाप
समंदर में
बिना पीछे मुडे


मुझे हीं
जलना होगा
हथेली पे बार-बार छुआई गयी
जलती सिगरेट से
और छटपटाना होगा
मुझे हीं हर बार


ये दर्द मेरा है
मुझे हीं गुजरना होगा इससे
चाहे जैसे गुजरूँ मैं ,
मैं जानता हूँ
तुम साथ नहीं होगी मेरे!

Monday, November 23, 2009

आ रहा हूँ...

कुछ नए किरदार चाहिए थे अपनी कविताओं के लिए सो किसी ने कुछ किताबें सजेस्ट की पढने को....किसी ने देखा कि अक्सर दुःख मुझे घेर लेता है तो उसने कुछ और कर दीं...मैं जरा पढ़ कर आ रहा हूँ। शायद थोड़ा वक्त लग जाए, मैं जरा धीरे पढता हूँ. आप भी पढ़ सकते हैं गर कोई टाइटल अच्छा लग जाए तो....बाकी ब्लॉग जगत पे पढने के लियेतो अथाह है हीं॥ अगर कमेन्ट देना चाहें तो अपनी पसंद की एक सबसे अच्छी किताब का नाम दे सकते हैं...
1।

HOW TO HAVE A BEAUTIFUL MIND.
==============================
use the power of creative thinking to become more attractive with a makeover for your mind!
written by EDWARD DE BONO
2.
SIX THINKINKING HATS.
=====================
the six thinking hats method may well be improve the most important change in human thinking for the past twenty three hundred years.
written by EDWARD DE BONO
3.
YOUR CREATIVE POWER
=====================
how to use imagination to brighten life and get ahead.
written by ALEX OSBORN .
4.
THE PATH TO LOVE
================
spiritual lessons for creating the love you need.
written by DEEPAK CHOPRA
5.
SECRETS OF THE MILLIONAIRE MIND
==================================
mastering the inner game of wealth
written by T.HARV EKER
6.
BRINDA
=========
this is story of Brinda,a young Irish girl,and her quest for knowledge.On her journey she meets a wise man who teaches her about overcoming her fears,and a woman teaches her how to dance to the hidden music of the world.They seein her a gift,but must let her own voyage of discovery.
"but how will i know who my soulmate is?"'By taking risks 'she said to Brinda'.
'by risking failure ,disappointment,disillusion,,but never ceasing in your search for love .As long as you keep looking ,you will triumph in the end.'
written by PAULO COELHO
=======================
7.
A THOUSAND SPENDID SUNS
========================
one of the story teller and the best selling auther of THE KITE RUNNER.
wrtten by KHALED HOSSEINI.
8.
CREATIVE VISUALIZATION
=======================
use the power of your imagination to creat what you want in your life
written by SHAKTI GAWAIN .
9.
KARMA COLA
==========
'there is a enough crazy characters, stories,and wild scenes here for several novels, and entire book offers........the real juice and color of modern India seen from the inside.'Library journal
===============
written by GITA MEHTA
10.
THE GREATNESS GUIDE
===================
This is a strikingly powerful and enormously practical handbook that will inspire you
to get to world class in both your personal and professional life.
written by
ROBIN SHARMA
11.
NOTES FROM A FRIEND
===================
more than a note from a friend -an indispensable guide.
written by
ANTHONY ROBBINS
12.
STEPHEN HAWKING A LIFE IN SCIENCE
=================================
biography of well known scientist
written by
MICHAEL WHITE N JOHN GRIBBIN
13.
DIFFICULT DAUGHTERS
===================
difficult daughters story of a woman torn between ,family duty,the desire for education ,and illicit love.winner of the 1999 commonwealth writers prize.
written by
MANJU KAPUR
14.
MAN'S SEARCH FOR MEANING
===========================
Internationally renowned psychiatrist Viktor E.Frankl endured years of unspeakable horror in Nazi death camps.During,and partly because of,his suffering,Dr.Frankl developed a revolutionary approach t psychotherapy known as logotherapy. At the core of his theory is the belief that man's primary motivational force is his search for meaning.
written by
VIKTORE E.FRANKL
15.
LOVE STORY
===========
written by
ERICH SEHGAL
16.
HOLY COW
=========
An Indian adventure
SARAH MACDONALD
17.
THE DEVINCI CODE
================
read the book and be enlightened
written by
DAN BROWN
18.
THE MAGIC OF THINKING BIG
=========================
learn the secrets of success--magnify your thinking patterns and achieve
everything you have always wanted.
written by
DAVID J.SCHWARTZ
19.
FAMILY WISDOM
==============
nurturing the leader within your child
written by
ROBIN SHARMA
20.
YOU CAN WORK YOUR OWN MIRACLES
==============================
how to condition yourself for success
written by
NAPOLEON HILL
21.
THE DA VINCI CODE
=================
a pulse-quickening,brain-teasing,adventure......a new master of smart thrills.
written by
DAN BROWN

Saturday, November 21, 2009

***

*
तेरी अश्कों की
बूँदें देख के
यूँ लगा,

कि
हैं तो वे समंदर हीं ,
सिर्फ किनारे छोटे हैं उनके।

*
जिसका पूरा था मैं
उसने
छोड़ दिया मुझको

उसके वास्ते,
जो मेरी थी ही नहीं।

*
आज की रात
मैं, तुम
और ये फिसलपट्टी

तुम और कुछ लाना चाहती हो तो
बता देना

Thursday, November 19, 2009

तुम्हारा मुबारक जन्म दिन मनाया जाए हर शाख पर!

अभी से कुछ देर बाद जब तारीख बदलेगी
तुम्हारा जन्म दिन हो जाएगा

वक्त के इस लम्हें में
मैं सोंच रहा हूँ
कि भेंट करूँ तुम्हें एक स्वप्न जैसी कविता
तुम्हारे जन्म दिन पर

मैं बाहर जा कर देख आया हूँ
चाँद नही है कहीं आसमान पर
पर कहीं से भी खोज कर
खींच लाना चाहता हूँ कविता में उसे
और बारिश को भी
क्यूंकि हमारी सबसे ज्यादा यादें
चाँद और बारिश को लेकर हैं

इससे पहले कि
मुझे नींद आ जाए
मैं सूरज से भी कह देना चाहता हूँ
कि कल वो खुशनुमा उगे
और सहलाए अपने नाजुक धुप भरे हाथों से तुम्हें

नींद नही आ पायी है
मैं यादों के तहखाने में दूर चला गया था
और रास्ता भूलने का नाटक करके देर तक रहा वहां
मुझे लगा
आज तुम्हारे साथ हीं होना चाहिए मुझे
जब तक कि ये तारीख फ़िर न बदल जाए

भोर हो आयी है,
सूरज गढ़ रहा है
तुम्हारे जन्म दिन कि सुबह
कुम्हार की मिटटी लगी है उसके हाथों में
और मैं अभी भी ढूंढ रहा हूँ
दुनिया की वो सबसे बेहतरीन चीजें
जिससे गढ़ी जा सके एक बिल्कुल नायाब कविता
क्यूंकि उपहार में कवितायें पसंद हैं तुम्हें

इस वक्त जब किरणें उग रही हैं खेतों में
मैं चाहता हूँ
कि धरती पे जितनी भी कोंपलें उगे
उन सब में तुम पनप जाओ
और हमेशा उपजती रहो उनकी मुस्कानों में
और मैं जानता हूँ
यह तुम्हारे लिए कठिन नही है

जब भी उगे कोई कोंपल नाजुक सी
तो वो तुम्हारा जन्म दिन हो
तुम्हारा मुबारक जन्म दिन मनाया जाए हर शाख पर

जन्म दिन मुबारक हो तुम्हें !

( ये १६ नवम्बर कि रात है और सुबह होने तक १७ नवम्बर है )

Tuesday, November 17, 2009

क्यूँ टूट गये???

वो रिश्ते जिनके बीज
ख्वाब में गिर कर हीं रह गये
मेरी माटी नही छू पाए
उन रिश्तों की पौध
ऊग आई है
आज मेरे सूने आंगन के एक कोने में

मैं हाथ नही लगाता
उनकी पाकीज़ा कोंपलों पे,
डरता हूँ, अपने हक के बारे में सोंच कर.

सिर्फ सुनने की कोशिश करता हूँ उन्हे
हाथ में आ जाए शायद कोई स्वर.

वे खुल कर बोलती नही


चुपके से दलील मांगती हैं,
सवाल पूछती हैं कि क्या हुआ,
क्यूँ टूट गये
जरा सा करवट बदलने में हीं ???

Friday, November 13, 2009

तिनका

कुछ मैं नही छोड़ पाया था
कुछ
वो भी नही छोड़ पाई थी
और
इस तरह हम छूट गये थे
एक दूसरे से

जब धार पे ख़ड़ा हो
तो कितनी देर रुका रह सकता है
कोई बिना बहे,
और उस धार में तो हम तिनकों जैसे थे.

वो जो हम नही छोड़ पाए थे तब
वो सब भी छूट गये धीरे धीरे
वक़्त ने नयी – नयी धारें बनाई आगे फिर

……………………………….
…………………………………

आदमी तो तिनका ही है
और धारें तो बदलती रहती हैं.

Wednesday, November 11, 2009

ऐसा नही है कि ये धुंध नया है !!

ऐसा नही है कि ये धुंध नया है
धुंध होते आए हैं
और आँखें मात खाती रही हैं

जब जाड़े के दिनों में
साइकिल पे निकला करता था
सुबह-सुबह ट्यूशन के लिए,
ये धुंध तब भी किया करती थी परेशान

ये धुंध तो हटाये नही हटती थी
जब बारहवीं की परीक्षा में
पहले निस्कासित और फिर बाद में
अनुतीर्ण होना हो गया था

इस धुंध ने हाथ पकड़ लिए थे मेरे
जब एक उमरदराज़ औरत के प्रेम में था
और निकलना चाहता था
और तब भी जब मुझे पड़ने लगे थे
मिर्गी के दौड़े अचानक से

पढ़ाई पूरी होने के बाद
रोजगार की तलाश में
जब निकल आया था घर से मैं
तब भी बिल्कुल यही धुंध छाई हुई थी चेहरे पे

आज भी धुंध हैं कुछ
और मैं जानता हूँ आगे भी रहेंगे ये
क्यूँकि जिंदगी बिना धुंधों के सफर नही करती

अभी तक के सारे धुंधों से तो
निकाल लाए हो तुम,
ऊँगली पकड़े रखा है मेरा
और अकसर पूछते हो
कि मैं कहीं लडखड़ा तो नही रहा
और आश्वस्त हो जाते हो जान कर कि मैं सकुशल हूँ.

पर मैं सोंचता हूँ उन दिनो के बारे में
जब धुंध तो होगी, पर तुम नही रहोगे

तब मैं कैसे निकलूँगा उन धुंधों से पापा !!!

Monday, November 9, 2009

बारिश में दास्तान

१)
बीच-बीच में
बिलकुल साफ़-शफ्फाक मौसम
और फिर
कभी हलकी, तो कभी
दनदनाती आती तेज बारिश...

आज मुझे,
सुना रहा था,
दास्ताँ-ए-इश्क बादल!

२)
मेरे कमरे की
कालीन तक पहुँच गया है समंदर
और लहरें उसकी
बार-बार मेरे बिस्तर को छूने लगी हैं

साहिल टूट तो नही जाएगा

3)
तुमने पोंछ दी थी
जो नज़्म लिख के कागज़ पे कल
उसमें मेरा भी नाम था शायद...

आज अखबार में मेरे लापता होने की
ख़बर आई है

४)
कल रात उसके ख्वाब ने
रंगे हाथों पकड़ा मुझे

मैंने पकड़ी हुई थी कलाई
किसी और ख्वाब की

५)
ओस की बूंदों में
थी आंसुओं सी गरमाहट

पता नही रात किस लिए रोई थी

Saturday, November 7, 2009

रजाई कम पड़ गयी है...

नींद औंधा पड़ा है
रजाई में सिकुड़ कर,
इस तरह जैसे सर्दी ज्यादा हो
और रजाई कम पड़ गयी हो

बाहर,
आंगन में
नींद से बिछुड़े हुए ख्वाब
टूट-टूट कर
गिर रहे हैं
कुछ हीं देर में नींद नंगी हो जायेगी शायद

निहायत कमजोर सा कोई वक़्त
अपने टखने में
दर्द लिए चल रहा है,
शायद अपने बुढापे में है.

आईने में
जब देखती हैं आँखें
दिखाई पड़ती हैं
कुछ सफ़ेद पपनियाँ

ऐसे में मैं ढूंढता फिरता हूँ
तुम्हारे हाथों से
बनायी हुई
एक कप कड़क काली चाय

ऐसा तबसे है जबसे
तुम छोड़ गयी हो मेरा किचेन !

Wednesday, November 4, 2009

अगर कहीं इन्साफ है !

वे कौन सी आत्माएं होंगी
जो होंगी
अगले जन्म में कुपोषित, भूखी
और मृत्यु के किनारे पे उनके शरीर

जिनके शरीरों के पेट फूले हुए होंगे
हाथ बदन से लटके
आँखें भूख में एकटक
और पसलियाँ छाती के बाहर
आ रही होंगी,
वे कौन सी आत्माएं होंगी

कौन सी आत्माएं होंगी २०५० में
जिनके शरीरों पे टिकाई नही जा सकेगी
जरा देर भी नजर

अगर कहीं इन्साफ है
तो ये वो आत्माएं होंगी
जो जिम्मेवार हैं वन और वन्य जीव के लुप्त होते जाने के
प्रदुषण के
खेतों के बंजर होते जाने के
और आखिरकार जलवायु परिवर्तन के लिए

Monday, November 2, 2009

मेरी अधूरी संवेदनाएं !!!

चीखों में हीं बोलती हैं
ये वेदनाएं
या रहती हैं चुपचाप आँख फाड़े अवाक

समझ में नहीं आती ये वेदनाएं
क्यूँ-कहाँ-कैसे-कब

जहां तक भी देखना हो पाता है
दिख जाती हैं ये
बिखरी पड़ी हुईं
गोल, चौकोर या लम्बोतरे चेहरे में

घर की चाहरदीवारी पे बैठी हुई कभी,
कभी रसोई घर के बाजू में खड़ी
कचरा घर के आस-पास भी
घर के कोनो में, दरवाजे के पीछे,
दराजों के नीचे
कभी सड़क के किनारे या रेलवे प्लेटफार्म पर
और न मालुम कहाँ और कब-कब

मैं बैठता हूँ अक्सर इन वेदनाओं के बाजू में
और कोशिश करता हूँ
सुनने की उनकी चीखों में उलझे सूखे शब्दों कों
और पूछता हूँ जब वे मिल जाती हैं अवाक
कि कौन हैं वे
पर नहीं मालुम क्या बोलती हैं ये वेदनाएं

जब तक नहीं समझ लूं इन्हें मैं
नहीं पूरी होंगी
मेरी संवेदनाएं!

Saturday, October 31, 2009

अब क्या शहर और क्या गाँव !!

शहर
या तो
अलग – अलग क़तारों में
ख़ड़ा है
बंटा हुआ,
या
फिर उपस्थित है
दौड़ता हुआ
भागदौड़ क़ी परिधि पे,
अपनी पूरी थकान के बाबजूद

कुछ शहर जाने जाते हैं नहीं सोने के लिए
और कुछ कतार में भी दौड़ने के लिए

शहर को मैने
कभी फुरसत में नही देखा
ना हीं कभी एकजुट.

बहुत बड़ी-बड़ी कतारें
उपस्थित हैं
बहुत छोटी-छोटी जगहों में
जगह के बीच से
जगह निकालते हुए

एक टूटते हुए और
दूसरे बनते हुए कतार के बीच के
अंतराल को आप छू नही सकते
और ना हीं कतार बदलने वाले को

जरा सा भी असावधानी
आपको बे-कतार कर सकती है
और फिर आप किसी भी कतार के शिकार हो सकते हैं

बिना कतार का आदमी
बड़ी मुश्किल से मिलता है
और अक्सर मुश्किल में मिलता है

Thursday, October 29, 2009

हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए !

लोग किनारे की रेत पे
जो अपने दर्द छोड़ देते है
वो समेटता रहता है
अपनी लहरें फैला-फैला कर
हमने कई बार देखा है समंदर कों नम होते हुए

जब भी कोई उदास हो कर
आ जाता है उसके करीब
वो अपनी लहरें खोल देता है
और खींच कर भींच लेता है अपने विशाल आगोश में
ताकि जज्ब कर सके आदमी के भीतर का
तमाम उफान

कभी जब मैं रोना चाहता था
पर आंसू पास नहीं होते थे
तो उसने आँखों कों आंसू दिए थे
और घंटों तक
अपने किनारे का कन्धा दिया था

मैं चाहता था
कि खींच लाऊं समंदर कों अपने शहर तक
पर मैं जानता हूँ
महानगर में दर्द ज्यादा होते हैं ...

और समंदर की जरूरत ज्यादा !!!

Tuesday, October 27, 2009

कब आ रही हो !!!

जब भी चली जाती हो तुम मायके
मैं एक एक कर
याद करता हूँ
अपनी सारी पुरानी प्रेमिकाएं

निकालता हूँ
कवर से गिटार
और रात देर तक उसके तारों को
छूते हुए कोशिश करता हूँ
महसूसना उन पुरानी प्रेमिकाओं को

कभी पार्क की
फिसल पट्टी पे लेट कर
आधा चाँद देखते हुए
सोंचता हूँ अधूरे प्रेमों के बारे में
और 'रात को रोक लो' वाला गाना गाता हूँ

निकालता हूँ
अपनी पुरानी लिखी कवितायें
एक दो पढता हूँ
और फ़िर रख देता हूँ
उनमें गंध आ गई है वैसी जैसी
बहुत दिन से पेटी में पड़े
पुराने कपडों में हो जाती है

और ये सब कर के
जब थक जाता हूँ
और हो जाता हूँ उदास
बनाता हूँ
मग भर कड़क काली चाय
और तुम्हें याद करते हुए पीता हूँ

और अगली सुबह
तुम्हें फोन करके पूछता हूँ
कब आ रही हो !!!


Monday, October 26, 2009

बडा इंतज़ार रहता है

दिल से चले गये दर्दो का
जाने क्यो बडा इंतज़ार रहता है

और जो बच गये हैं बैठे हैं जाम लेके
होश इनको जरा ना-गवार रहता है

आजकल अखबार का समाचार पढते वक़्त
नजर बडा ही शर्मसार रहता है

बदन के रेशे रेशे पे जिंदा हर पल
तेरे बोसे का प्यार रहता है

समंदर ने छोड दिया आना साहिल पे
किनारे की रेत पे तपिश बेशुमार रहता है

दुनिया के दामन में साजिश बहुत है
जिंदगी पे मौत का खौफ हमेशा बरकरार रहता है

Friday, October 23, 2009

फूली नही समा रही है पृथ्वी !

आदमी मुस्कुराता है

नही हमेशा,
कभी-कभी हीं सही
पर अभी भी
जारी है आदमी का मुस्कुराना

आदमी हमेशा हँसता-मुस्कुराता रहे
मुस्कुराने के मौके तलाशे और तराशे
ऐसी मेरी चाहत है और प्रार्थना भी

मुझे फक्र है
हर मुस्कुराते हुए आदमी पर
जो इस सनातन दुःख के बीच
मुस्कराहट इन्सर्ट करने की हिम्मत रखता है

मेरी कल्पना में
अक्सर जीवित हो उठता है वो दृश्य
जिसमें छह अरब लोग
एक साथ मुस्कुरा रहे हैं

उस दृश्य में
धरती का आयतन
वर्तमान से कई गुणा ज्यादा है
दरअसल, फूली नही समा रही है पृथ्वी
उस दृश्य में

उस दृश्य में मुस्कुराते हुए
देख रही है वो मुझे
और मैं उसे.

Wednesday, October 21, 2009

तुमने कहा था इसलिए...

१)
चुप सी रहा करती है
एकदम निःशब्द आँखें हैं

लाख निचोड़ लो,
नहीं मिलता एक भी सुराग

बस बहती रहती है मुसलसल
चाहे कोई भी मौसम हो
ऐसे जैसे कोई खाली आसमान बरसता हो लगातार

कोई बताये उसे
कि नीचे खड़ा भींगता रहता है कोई उनमे

२)
इन दिनों
उग आया है एक पौधा
मेरे आँगन में
लाजवंती का

मैं उसकी तरफ देखने से बचता हूँ

वो कहा करती थी
मेरी आँखों का स्पर्श बहुत गहरा है

३)
भीतर का मौन
और बाहर का सन्नाटा
दोनों टूटे हैं एक साथ

चूल्हे पे चढ़े
आवाज का ढक्कन उड़ गया है

दरअसल कभी-कभी
बहुत शोर हो जाता है मुझसे

अक्सर तब,
जब याद आ जाती है
ज़माने की विसंगतियां
और हमारा सपना, बिखरा हुआ

Monday, October 19, 2009

उदास था कल वो नीम का पेड़ !

१)
कल तुम्हारे घर के करीब से गुजरा था
एक नजर डाली थी उस नीम के पेड़ पे भी
जो हिल कर दिया करता था गवाही हमारे प्यार की

बहुत उदास लगा वो मुझको

तुमने शायद वहां,उस पेड़ के नीचे दीये नही जलाये थे।

२)
कल रात बहुत आतिसबाजियाँ हुईं
मेरा मौन ढूंढता रहा
एक वक्फा उन आवाजों के दरम्यान

जहाँ वो तेरी फुलझडी रख सके।

३)
इस बार दीवाली पे
तारों के गम में बादल भी शरीक हुए बरस कर

हर बार की तरह इस बार भी
ठीक दिवाली की रात चांद कहीं छिप गया जाके ।

Sunday, October 18, 2009

इजहार

(कुछ कवितायें बार बार सच होती हैं...इसलिए एक बार और पेश कर रहा हूँ...क्यूंकि फ़िर से सामयिक हो गई है किसी के लिए ...साँसे चक्रवात से कम नही और दिल से जो भी लहू गुजर रहा है...निकल रहा है बाहर बिल्कुल गरम होकर...)

लब्ज सुन लिए गए थे

कायनात की सारी आवाजों ने
उन तीन लब्जों के लिए
सारी जगहें खाली कर दी थीं

होंठों पे
सदियों से जमा वजन
उतर गया था

उसके भीतर कोई नाच उठा था
जो नाचता हीं जा रहा था
लगातार...लगातार....

दिन भर दौड़ में लगे ख्वाबों का बिस्तर है नींद !

लकडियाँ जोड़ी
उपले लगाए
तीलियाँ फूंकी
पर आंच जली नही
उठता रहा धुंआ, केवल धुंआ !

हांडी में चढाई थी जो नींद
वो कच्ची हीं रह गई।

चाहिए थी एक पकी नींद
ख्वाबों के लिए,
दिन भर दौड़ में लगे ख्वाबों का बिस्तर है नींद
जो कभी-कभी यूँ हीं बिना सिलवटों के रह जाती है

जाने कहाँ से आकर ख्याल में कुत्ते रोते रहते हैं
और लाख लतियाने पे भागते नही

सुबह-सुबह चाय पीते हुए
उनींदे मन ये सोंच रहा हूँ
कि आख़िर कुत्ते भी क्या करें
उन्हें भी कहाँ वक्त मिलता है रोने के लिए

और चाय पीने के बाद देख रहा हूँ
कैसे दौड़ पड़े हैं ख्वाब
फ़िर उन कुत्तों को रोता छोड़ कर

Friday, October 16, 2009

तुम्हारे लौ भरे हाथ बहुत याद आतें हैं

१)
रात
अमावस की तरफ़ मुंह किए
जा रही थी
और हम खुश थे
कि दिवाली आ रही है !

२)
न तुमने बढ़ाई अपनी लौ
और न मैंने
अपनी बाती

दीया कैसे जलता आख़िर!

३)
बढ़ा दो अपनी लौ
कि पकड़ लूँ उसे मैं अपनी लौ से,

इससे पहले कि फकफका कर
बुझ जाए ये रिश्ता
आओ मिल के फ़िर से मना लें दिवाली !

४)
एक ही लौ होगी हर कहीं
और एक ही ऊर्जा
देख लो चाहे कोई भी दीया हो
या हो कोई भी बाती

५)
तुम्हारे लौ भरे हाथ
बहुत याद आतें हैं
जब भी दिवाली आती है

Wednesday, October 14, 2009

पतझड़ का सिलसिला थमता नही !

चील से उडते हैं मौसम
जैसे झपट्टा मारने को हों

अलसायी पडी जिंदगी
सुखती रहती है टहनी पे,
जम्हाई लेती दुपहरी के रोशनदानो से
झुलसी हुई हवा का आना जाना लगा रहता है
दीवारे तपने लगती है अल्लसुबह से
भीतर ही भीतर
धाह मारती रहती है

भिंगोता हूँ, पानी छिडकता हूँ पर ताप थमती नही
जिंदगी सब्ज नही होती

शाखें बिना कोंपलो के डोलती रहती है.

वो अपने छाँव जो ले गयी है .

Tuesday, October 13, 2009

तब आखिरी बार उसकी पीठ देखी थी !

उधेड़ गयी वो सीवन
एक धागा था बांधे हुए
गिरहें खुल गयीं
और फ़िर उधड़ते चला गया धागा

रिश्ते का हिज्जे बदल गया
एहसासों का जायका भी,
उसके साथ साथ

बंद हो गयी सारी नसें आँसुओं वाली

ना संभाल कर रखने को छोड़ा
कोई निशान
ना यादों के लिए कोई लकीर,
जिसे पकड़ के कभी दुबारा लौटना हो सके

एक लम्हा था
जो पलटा तो
एक तरफ कुछ कागजात थे हमारे दस्तख़त वाले
और दूसरी तरफ
उसकी पीठ जा रही थी.

Sunday, October 11, 2009

अब मेरे सपनो को खोल कर मत देखो !

वो गयी
और अनजाने में ही
लेती गयी
अपनी आंखों से बाँध कर
मेरे सपने

जब कभी
अब वो
खोल कर देखती है उन्हे
रोती है

Saturday, October 10, 2009

इक्कीसवीं सदी में इस पोस्ट के लिए क्या शीर्षक हो सकता है !!!

१)
नींव में दबा दी गयी है
दुनिया की सत्तर प्रतिशत
कमजोर, कुपोषित और निशक्त आबादी

और बनाना चाह रहे हैं वे
तीस प्रतिशत लोगों के लिए
कुछ ऊंची मजबूत इमारतें

नादान !

२)
आज अरसे बाद
कैमरे में फ़िर है भूख

बमों से मारे गये
या बाढ़ से तबाह हुए लोग
चैनल की टी आर पी रेट पर
कुछ खास कमाल नही दिखा पा रहे थे

इक्कीसवीं सदी के एक विकासशील देश में
भूख एक मुद्दे की बात है

सरकार इस समाचार को, जिसमे कि भूख है
अपशकुन मानती है
खास कर इस चुनाव के समय में.

लतार मिल रही है
आलाकमान से कि
भूख को छिपा कर रखना भी नही आता
चुनाव क्या खाक जीतेंगे

सरकार की मजबूरी है
कि सरकार में कोई भी
दूसरे के भूख को
अपने पेट पे लेने को तैयार नही है
और मीडिया की मजबूरी है कि
एक नए बेकसी चाहिए हर रोज

हमारी क्या मजबूरी है!!!

३)
" रात होने पे
जब भोजन मांगने लगते हैं
और चिल्ल-पों मचाते हैं
तो उन्हें
पीट कर रुलाना पड़ता है

पहले वे रोते तो हैं
पर बाद में थक कर सो जाते हैं

हम दिन में एक बार खा सकते हैं
चावल नमक या रोटी नमक "

टेलीविजन के एक दृश्य में
कह रही थी एक औरत.

Friday, October 9, 2009

पूरा किया तुमने आकार, मेरी मिट्टी का !!



अपने नन्हे ख्वाबों की ऊंगली
देना मेरे हाथों में,
वे मेरे भी होंगे
सिर्फ़ तुम्हारे नही.

अपनी देह में
तुम्हे संजोकर,
हर्फ़ हर्फ़ जोड़ा है तेरा,
कतरा-कतरा बुना है
तेरी अस्थियों और मज्जों को
भरा है उनमे अपना लहू और अपनी साँसें

इसलिए कहती हूं ,वे मेरे भी होंगे
सिर्फ़ तुम्हारे नही

तुम्हारे उन ख्वाबों पर एक भी खरोंच
खुरच देगी मेरी नींद भी,
गिरेंगी टूटकर
तो किरचे मेरी आँखों में भी गिरेंगे

तुम्हारे आने की सदा जिस दिन सुनाई दी थी
उस दिन से
रंग-बिरंगी तितलियों ने
बहुत तरंगे बनाई मन के पानी में
और पूरा किया तुमने आकार,
मेरी मिट्टी का,
दिया सुकून तुमारी कोंपलों ने उगकर

तुम्हारे आने की सदा जिस दिन सुनाई दी थी
उस दिन से हीं
वे हमारे ख्वाब हैं
मेरे या तुम्हारे नही

हम साथ-साथ टहला करेंगे
सुबह-सुबह नंगे पाँव ठंडी धूप पर
और तुम अपने ख्वाब मेरी आँखों में देना.
तेरा हर्फ़-हर्फ़ जोड़ा है मैंने
तेरे ख्वाब भी जोड़ दूँगी शब्द-शब्द
मैं तेरी माँ हूँ मेरी बेटी, मेरी चेरिल!

Wednesday, October 7, 2009

हालांकि मैने छोड़ दिए हैं देखने वे ख्वाब !!!

हालांकि, मैने छोड़ दिए हैं
देखने वे ख्वाब
और जिक्र करना भी...

पर, मेरे कंधे पर
अभी भी आ झुकता है चेहरा तेरा
और मेरे सीने को
जब तब घेर लेती हैं बाजुएं तुम्हारी
ख़ास कर तब, जब हम
टहलते हुए निकल जाते हैं साहिल तकaa
और बैठ जाते हैं रेत पर

मेरी कनपटियो कों रगड़ती हुई
जब उलझ जाती हैं तुम्हारी अलाव सी साँसे
मेरी बाली से,
आँखें गर्म मिलती हैं सुबह
और यूँ लगता है
कि नींद किसी उबलते ख्वाब से गुजरी होगी

अभी भी खुल जाती हैं तुम्हारी सलवटें
जहाँ पनाह भरा है
और वो मौन राते, जहाँ लब्जों के सिवाए
सब कुछ होता है.

अभी भी कभी-कभी जगता हूँ जब
तो पाता हूँ सुबह अपने होंठों पे
तेरे होंठों के जायके कों चिपके हुए

हालांकि मैने छोड़ दिए हैं देखने वे ख्वाब
फिर भी...
जिक्र तो हो ही जाता है !!!

Tuesday, October 6, 2009

यादें

कई यादें हैं
एक से लगती हुई एक
पीछे, बहुत दूर तक फैली हुई
जहाँ तक नजर जाती है.
जैसे पहाड़ियाँ होती हैं
एक से एक लगी हुई, फैली दूर तक
जहाँ पनाह पाता है सूरज शाम को

कुछ यादें,
जो बसी हैं
बिल्कुल तराई में
कभी जब हो जाती है मूसलाधार बारिश,
तो उनका बहाव
बदन के कगारों को तोड़ते हुए
पहुँच जाता है पलकों तक
और बहने लगता है धार धार


बहुत बार डाली है मिट्टी
बहुत बार ढँक दिया है
मोटी परतों से,
याद के
उन गहरे निशानों को
पर कोई भी,
किसी संगीत का टुकड़ा, कविता की कोई पंक्ति,
या ऐसे ही
बाजार में टहलता हुआ कोई लम्हा,
तोड़ कर
चला जाता है
उन बांधों को
और पानी, फिर बाहर आने लगता है

मैं कहाँ से लाऊँ
अब इतनी मिट्टी
जो रोक सके उन यादों का बहाव
जो बहा ले जाती है
बार- बार मुझे.

Monday, October 5, 2009

निष्ठुर

भूख थे वहाँ कतार में खड़े
और
पेट उनके, आग में पक रहे थे

चेहरे पहले लार लार हुए
फिर सूख कर लटक गये
इंतेज़ार में,
जीभ पपड़ीदार हुए फिर
आस में भोजन के
मगर शर्म नही आयी उसे.

वो भीतर
आसन पे विराजमान
अपने
दप-दप करते चेहरे के साथ
मजे से
चढ़ावे खाता रहा.

Thursday, October 1, 2009

मुद्दत तलक वो मुझे फूंकती थी !

किसी ने उसे कभी दिया था जला
पीने से पहले वो मुझे फूंकती थी

बादल को मैंने कहा था कभी
कि बूँदें तुझे एक दिन छोड़ देंगी

मुहब्बत की ताजी नजर से गिरी हो
कायनात को तुम डुबो के रहोगी

कड़ी धूप में जिंदगी तप रही है
मैंने तेरे सारे छाँव खो दिए हैं

छोड़ दिया उसने जब ख्वाबों में आना
मैंने भी छोड़ दिए ख्वाब सजाना

सब कुछ हो जब बिलकुल हीं सही
कोई न कोई कांच टूट जाता वहीँ

Tuesday, September 29, 2009

तुम्हारा जन्म दिन!


उठो,
देखो खिड़की खोल कर,
बालकनी से झाँक कर
सूरज, लाया है आज
कुछ ख़ास कशीदे बुनकर किरणों की

कई साल पहले
आसमान के तारों पे अपने नन्हे पाँव रखते
उतर आई थी एक एंजेल
जमीन पे
शक्ल उसकी ओस के बूँद सी थी
और खिलखिलाई थी वो
जिंगल बेल की आवाज में

सुनकर,
सूरज नाचा था तब भी
नाचता है आज के दिन हमेशा
और बुनकर लाता है कशीदे

आज भी वही दिन है
आज भी सूरज लाया है
किरणों के वही कशीदे
और नाच रहा है
बिना रुके

आज भी वही दिन है
तुम्हारा जन्म दिन!
है ना !!

Monday, September 28, 2009

दर्द की जो शक्ल है!

[गौतम राजरिशी, अनुराग जी से पता चला कि......, दुआ है जल्दी से जल्दी ठीक हो जाएँ ]

दर्द की जो शक्ल है
ठीक दिखाई पड़ती
तो पास बुलाता उसको
और कहता-

ठिकाना बदलना था
तो मेरे यार का घर हीं दिखा तुझको...

फिर चूमता उसको
या कान पकड़ता
और कहता
आ जा, इससे अच्छा तो मेरे घर हीं रह ले।

Sunday, September 27, 2009

सूखे लोगों की सभ्यता

मकान पक्के होते गये
और दीवारे भी

पक्के और सख्त साथ- साथ

दर्द सुनने के लिए न कान रह सके खुले
और न दिल के कोशे उनके
बारीक से बारीक पोर भी
पाट दिए गये
गारे-चूने से

कंपकपाती निरीह कराहें
उन दीवारों के दोनों तरफ
किसी कोलाहल का हिस्सा ही लगती रहीं

आसुओं से भींग कर
ढह जाने वाली दीवारें
बची नहीं इन पक्की उंची इमारतों में

अब
ये पक्के मकानों, सख्त दीवारों और सूखे लोगों की सभ्यता है
जहाँ आंसू पिघलाते नहीं और चीख कोलाहल लगती है.

Wednesday, September 23, 2009

दुःख की एक बड़ी लकीर !

[आज हीं यह कविता 'हिंद युग्म' पर प्रकाशित हुई है, आप में से कई मित्रगण ये कविता पहले हीं पढ़ चुके हैं और अपनी प्रतिक्रिया भी दे चुके हैं, पर कुछ अन्य मित्रगण शायद न देख पाए हों, उनके लिए विशेष रूप से फ़िर से प्रस्तुत कर रहा हूँ. ]

कहीं भी
कोई जगह नही है
जिसे दश्त कहा जा सके
और जहाँ
फिरा जा सके मारा-मारा
बेरोक- टोक
समय के आखिरी सांस तक.

कहीं कोई जमीन भी नहीं
जिस पर टूट कर,
भरभरा कर,
गिर जाया जाए,
मिटटी हो जाया जाए
और कोई उठानेवाला न हो
और हो भी तो रहने दे पड़ा,
बिल्कुल न उठाये

छोड़ दे ये देह
और रूह भी साथ न दे
ऐसी परिस्थिति में
ले जाया जाए मुझे
जहाँ अनंत दुःख हो
और अकेले भोगना हो

मैं बस इतना चाहता हूँ कि
तुमसे अलग होने का जो दुःख है
उस के बाजू में
किसी और दुःख की
एक बड़ी लकीर खींच दूँ ।

सुबह तक तो हौसले में ले जरा !

मैं नींद को तेरे से लू चुरा
अपनी नजर में मुझे तू ले जरा

मैं तेरा हूँ, ये मुझे यकीन हैं
तू इसे अपनी यकीन में ले जरा

रात है घनी और तन्हाई टूटी हुई
सुबह तक तो हौसले में ले जरा

बुझने लगी है लपट जिंदगी की
अपने आग में उसे तो ले जरा

बदन में उग रहा है तू कहीं
अपनी आहटें आ के सुन ले जरा

कुछ लब्ज भटकते हैं बे-आवाज
तू अपने सुर में उसे तो ले जरा

Monday, September 21, 2009

जब कभी...

जब भी चूम लेता हूँ
श्वेत-श्याम तस्वीर में
तेरे होठों को,

वे सुर्ख लाल हों जाती हैं

Saturday, September 19, 2009

आँख में पकडी गयी चाँद के मैं !

१)
सर्द हवाएं हिलोरें लेती हैं जब-जब,
याद आती है तुम्हारी हथेलियों पे रची

मेंहदी की लाल आग.

२)
कल आँख में पकडी गयी
चाँद के मैं,

उसकी आँखें बड़ी सच बोलती हैं

३)
वो आई तो
मैने शाख बढ़ा दी.

वो धूप थी, छाँव बनने की आरजू में

४)
भर गयी आवाज़ उसकी जब
मेरी दास्ताँ सुनकर,

मैने वहाँ से कुछ नज्में निकाल ली

५)
किताबों में,
पहले नदियाँ मिल जाती थीं

अब बादल यूँ हीं आवारा फिरते हैं



Wednesday, September 16, 2009

बीच का पुल

बीच का पुल

टूट जाये

तो भी

रिश्ते

भर-भरा कर

गिर नही जाते.

वे

किनारे पे खड़े

इंतिज़ार करते रहते है

कि

कब ये पुल जुड़े

और

फिर वे चलें.

Tuesday, September 15, 2009

तेरे माहौल में रहा करता हूँ !!

अक्सर चला जाता हूँ
अपने किनारे से चलते हुए
तुम्हारे मंझधार तक
अनजाने हीं तुम्हारे बहाव में बहते हुए

खाली कर के रखता हूँ
हमेशा कुछ स्थितियां
ताकि तुम आओ तो
कुछ भर सको उनमें अपनी पसंद का

तुम्हारी ताप में जाकर
स्थिर हो रहना
मुझे देता है
खुद को कायम रखने की ऊर्जा
और तुम्हारे ख्वाब में जाकर हीं
पूरी होती है मेरी नींद

मध्धम से तेज
हर तरह की धुप में
तुम्हारा रूप भरता रहता है
मेरे बदन के कोशे कोशे को

जब कभी रात
अपने खालीपन में
लडखडाती हुई गिर जाती है
सुबह उठ कर पाता हूँ
तेरी ही जमीन को
नीचे से थामे हुए उसको

दरअसल
तेरे माहौल में होना हीं
सही मायने में मेरा होना है

Sunday, September 13, 2009

वे जाने कबसे भटकते हैं !!

एक नींद से
दूसरे नींद तक के वक्फे में
भटक गए हैं
हमारे कुछ ख्वाब

वे जो भटके हुए ख्वाब हैं
उनके अक्स,
कभी दरवाजे के उस पार से
कभी खिडकी,
कभी रोशनदान से
लगातार झांकते रहते हैं

हमारे चेहरों को
लगातार ताकते हैं वे ख्वाब,
इस आस में कि
पा लिए जाएँ

वे दिखाई भी पड़ते हैं
पर उन्हे अब वापस पा लेना
किसी भी नींद के वश में नही

उन भटके हुए ख्वाबों का
भटकाव
दरअसल
हमारा ही भटकाव है

और यह तय है कि
हम अब कभी आँख में
नहीं लिए जा सकेंगे।

Friday, September 11, 2009

नादान

लाख बुलाया,
कितनी आवाज़े दी
पर माना नही
छत से उतर कर जीने पे बैठ गया आखिरकार

कहता है
बिना चाँद लिए उतरेगा नही

कितना नादान है
ये दिल मेरा!

Wednesday, September 9, 2009

तेरे इश्क में

मैं हूँ अभी
इतना गतिमान
कि हूँ न्युटन के गति नियमों से परे
और इतना निरपेक्ष
कि आइंस्टीन है स्तब्ध.

मैं हूँ अभी
तेरे इश्क में.

Monday, September 7, 2009

सिर्फ तुम पर है !!!

अपनी लौ से लबरेज हथेली
रख दो आज
मेरी तनहा हथेली में

बरसों से परत-दर-परत
जमा हुआ मोम
पिघला कर
बहा दो
मेरी आँखों के कोरों से

ओस सी चिकनी
और पारदर्शी सुबह
उगा दो मेरी आँखों में

समझ लो
अपनी हथेली से
मेरी हथेली कों

मेरा होना अब
सिर्फ तुम पर है

Saturday, September 5, 2009

अभी-अभी उसके ख्वाब से लौटी हूँ !!

आँख बढ़ा कर
खींच लिया उसने
नींद के उस तरफ मुझको,

आवाज़ जो आने को थी,
बुझा दिया उसको
लबों पे मेरे, उंगली रख के

फिर कुछ देर तक वो
संभालता रहा अपनी साँसे
और मैं अपनी

फिर हौले से
उठा दी उसने चेहरे से हया
और खोलने लगा गाँठे
एक के बाद एक,
जो अब तक
बंद पड़ी थी किसी संदुकची में

जमी हुई साँसें पिघल गयी
और जिस्म ने भी
सारे गुबार निकाल दिए, दबे हुए

ख्वाब के शरीर में तुम्हारे,
जाने कौन सा मौसम था
कि लौटी हूँ वहां से
तो बदन पे एक भी सिलवट नहीं है

Thursday, September 3, 2009

कुछ लब्ज रह जाते हैं बे-नज्म भी !!!

कुछ लब्ज पसरे हुए हैं
जैसे मीलों चलकर आये हों कहीं से

आँखों में उनके
ढेर सारा नींद बिछा है
और पलकों पे सलवटें हैं

रात भर
इक नज्म क़ी मिट्टी कोडते रहे वो
रात भर
सांस फंसी रही उनकी मिट्टी में

पर ना कोई शक्ल बनी नज्म क़ी
और ना तलाश को
मिला कोई सुर्ख रंग
बस लम्हा-लम्हा खाक होती चली गयी रात.

उन्हें तो बस रंग जाना था,
सुर्ख रंग में
इक नज्म के,
और बह जाना था
उसके किनारे से लग कर

पर
हर बूँद को कहाँ मिलती है नदी
बह कर सागर तक पहुँचने के लिए
और न पिया के रंग में रंगी चुनर हीं
हर किसी को

कुछ लब्ज रह जाते हैं बे-नज्म भी !!!

Monday, August 31, 2009

दुःख शायद लहू को ठंडा भी कर देता है !

एक लम्बे दुःख ने
थका दिया है मुझे
या फिर उबा दिया है शायद

सुबह उठ कर जो आ बैठा था
बालकनी में इस कुर्सी पर
तब से कितने गोल दागे बच्चों ने
सामने खेल के मैदान में
पर पसीना नहीं आया मुझे

दुःख शायद लहू को ठंडा भी कर देता है

लहू मांगती है अब
सुख का ताप, थोडा सा
और
जिस्म पसीना मांगता है

सुबह-सुबह आईने में
मेरा चेहरा भी मांगता है
एक मुनासिब सजावट
जहाँ चीजें करीने से लगी हों
और एक बदन
जो सारी उबासी निकाल चुका हो

मन के पोर भी
बजते हैं बेचैन होकर,
सुनाई देती है उनकी थकन

अपनी हीं हथेली से
दबाता रहता हूँ उन्हें
पर कई हिस्से छूट जाते हैं

तुम बताओ
तुम क्या करती हो
जब पीठ में दर्द होता है तुम्हारे
मुझे छोड़ कर जाने के बाद ??

Saturday, August 29, 2009

जिद

धूप में पड़े रहे वो
खुले आसमान के नीचे
सूखते-टटाते
आखिर तक

पहले रंग उतरे उनके
और फिर उधडती गई
धीरे-धीरे
सीवन उनके बीच की,

छाँव खींच कर वे
आशियाना जमा लिये होते, गर
एक ने मान ली होती दूसरे की जिद

मगर वे अड़े रहे
न छाँव खींची, न जिद अपनी
पड़े रहे वे धूप में चिद्दिया उड़ने तक.

जाने क्यूँ, जाने कैसे!

Thursday, August 27, 2009

आंखों की धार भी चुपचाप बहती है !

एक सन्नाटा है यहाँ अब
छितराया हुआ
फर्श पर, बरामदे में, आँगन में, ज़ीने पर
बाहर लॉन में
हर तरफ

सन्नाटे को देखने के लिए
नजर घुमानी नहीं पड़ रही

सब खाली हो चुके हैं आवाज से
न ताकत बची है बुदबुदाने की भी किसी में
और न वजह

हवा सांय-सांय भी नहीं कर रही
आंखों की धार भी चुपचाप बहती है

जाने कौन तोडेगा ये सन्नाटा अब
वो तो कह गया है
कि कभी नहीं आएगा

Tuesday, August 25, 2009

अब कोई अंत नही दुःख का !

यहाँ जब
मैं लिख रहा हूँ उस दुःख को
तुम उस दुःख के भीतर पड़ी हो बेहोश

कभी-कभार,

एक आध मिनट के लिए

तुम आती हो बाहर
और इससे पहले कि मैं शरीक होऊं
तुम्हारे दुःख में,
दुःख तुम्हें फ़िर लील लेता है

तुम्हें तो अंदाजा भी नही होगा
तुम्हारे दुःख का,
तुम तो बेहोश हो
और हमें सिर्फ़ अंदाजा है

यहाँ मैं लिख रहा हूँ दुःख
और तुम भोग रही हो अपनी छाती पर
आख़िर इसी छाती से पिलाया था न
तुमने दूध उसको

(मेरी बुआ के इकलौते पुत्र 'राहुल' की असमय मृत्यु पर, लगभग १६ वर्ष की अवस्था में )

Monday, August 24, 2009

छोटे-छोटे फासले !

(१)

लम्बी दूरी की
कॉल दरें
घटाई जा रही हैं !

बातें, अब
दूरियां कम करने के लिए
नही की जाती

(२)

एक जगह होती है,
चोट को
अक्सर वहीं लगना होता है

दिल को
बार-बार
उसी जगह से टूटना होता है

(३)

कुछ चोटें
यूँ लग जाती हैं
कि फ़िर ,
नाखून
कभी नही जमते दुबारा

(४)

कुछ दुःख,
लाख छींटें मारो आंखों में
पानी के,
आँख छोड़ कर नहीं जाते

कुछ दुःख, लाख छुपाओ पकड़ लिए जाते हैं

(५)

कुछ उगी हुई फुंसियाँ,
कुछ घाव
फटें होंठ और सुखा मौसम

तुम्हें भूलने में काम आ रहे हैं !

Friday, August 21, 2009

आओ थोड़ा और आगे चलते हैं !

छोटा सा एक स्पर्श
धीमे से
तुम्हारी उंगलियों में फँसाया था कभी,
वो भी ख्वाब में
और कैसे अंगीठी हो गयी थी तुम्हारी साँसे

पीछे दीवार से टिका कर तेरी पीठ
मैने देनी चाही थी तुम्हें
अपनी धौंकनी
याद है?

पर तुमसे सहेजा ना गया था
और अकबका कर चली गयी थी तुम
ख्वाब से,
जैसे कि डर गई होओं लौ में बदलने से .

आज फिर देखा है तुम्हे
वही ख्वाब है,
पर आज तुमने अपनी पंखुडी पे

मेरे लब आने दिये

और लौ पकड़े तुमने ख़ुद अपनी हाथों से

कुछ रिश्ते ख्वाब में ही आगे बढ़ते हैं शायद!

ये कविता मेरी आवाज में सुनने के लिए यहाँ क्लिक करे


Thursday, August 20, 2009

एक और मृत्यु

प्रेम के चक्रव्यूह को


तोड़ना


जानती थी तुम


मैं अभिमन्यु था...मारा गया

Wednesday, August 19, 2009

जहाँ मैं लिखता हूँ...

जहाँ मैं लिखता हूँ
घंटों तर करता रहता हूँ
जमीं पानी से
कि शब्द अंकुरित हों अच्छे से

जहाँ मैं लिखता हूँ
वहां रखता हूँ छाँव भी और धूप भी
कि पक्तियां झुलसे न
और उसमे आये ताकत भी

जहाँ मैं लिखता हूँ
वहां से दूर जा कर पीता हूँ सिगरेट
कि धुआं न पी ले रुबाई

जहाँ मैं लिखता हूँ
वहां रखता हूँ एक रुमाल
कि कागज़ गीले न हों
गर टपक जाए आँख धुंधली होकर

जहाँ मैं लिखता हूँ
लगा रखे हैं मैंने वहां पे बाड़
कि कोई अड़ियल शब्द पहुँच कर
गुस्ताखी न कर दे

जहाँ मैं लिखता हूँ
वहाँ रहता हूँ कितना सचेत
कि कोई नज्म
रुखाई से पेश न आ जाए

मैं करता हूँ सारी कोशिशें
कि तुम तक पहुंचे सिर्फ और सिर्फ
एक मुलायम कविता

मैं लिखता हूँ इतने जतन से
और तुम पढ़ती भी नही

Monday, August 17, 2009

याद में

इस लड़खड़ाती रात में
उसकी यादों की उंगली थामे चल रहा हूँ

उसकी यादों का वजूद
मेरे हर गिरते पल को थाम लेता है

याद में ये राहें इतनी व्यस्त नही हैं
यहाँ प्यार से चलने के लिये
जगह भी है और वक़्त भी
इन पर जरा बेफिक्र हो कर चला जा सकता है

याद में उसकी लबे हैं पंखुडी जैसी
जहाँ गुलाब महकता है
एक लहर है नजरों में
जिस पर समंदर बहकता है

इस लड़खड़ाती रात में
उसकी यादों की उंगली थामे चल रहा हूँ
और उम्मीद है कि
एक पुख्ता सुबह तक पहुँच जाऊंगा

Sunday, August 16, 2009

सिर्फ़ मन्नतें बदली हैं !

वही दर है
वही मैं

सिर्फ़ मन्नतें बदली हैं

कभी मांगता था
कि तू जिंदगी में आ जाए
और अब मांगता हूँ
कि तू बस और याद न आए

Friday, August 14, 2009

कागज़ की स्वतंत्रता!

ट्रैफिक सिग्नल पे

गाड़ियों के शीशे ठोक-ठोक कर

बेच रहा है वो

कागज़ के तिरंगे

और इस तरह

कमा रहा है

थोडी सी आजादी

अपनी भूख से

आज स्वतंत्रता दिवस की

पूर्व संध्या पर

एक कसी मुट्ठी वाली कविता

लड़की
सिक्का-सिक्का जमा कर रही है
धारदार अक्षरों और नोकीले शब्दों को
जो कभी नही रहे उसके गुल्लक में
और पिरोने की तयारी में है
एक कसी मुट्ठी वाली कविता

लड़की को मिल गया है
आसमान
जहाँ वो अभिव्यक्ति रख सके

Thursday, August 13, 2009

सिर्फ उस क्षण के लिए !

सिर्फ उस क्षण के लिए,
जब वो देखती हो मेरी आँखों में
उसे वहां प्यार दिखे

इतना सामर्थ्य दो मुझे बस,
बस इतना करो.

मैं चाहता हूँ
वो भी गुजरे उस स्थिति से,
जिससे मैं गुजरता हूँ
उसकी आँख में देख कर

Monday, August 10, 2009

तुम यहाँ भी हो !

अभी इक ऊँची पहाड़ी पे हूँ

यहाँ दिखा है एक फूल

झुक कर देख रहा हूँ उसमें

तुम्हारा रंग

और नासपुटों में जा रही है

तुम्हारी खुशबू

Saturday, August 8, 2009

कुछ होता था...

मैंने सिगरेट पीनी छोड़ दी थी
मेरे दुःख अब धुएँ में नही बदलते थे

बातों का सिलसिला मेरे हाथों टूट गया था
मेरे हाथ में तभी से मोच आ गई थी

शहर में रोने की कोई जगह नही थी
शहर में रोने पर कर्फ्यू था

मैं अपने दोस्त की माँ से मिलता था
अक्सर मुझे माँ याद आती थी
मेरी माँ में मुझे जो माँ के अलावा था,
वो दिखाई दे जाता था

उस तक पहुँचने के लिए एक सड़क काफ़ी नही थी
वो एक बदलती हुई मंजिल थी

कांपती रात के किनारे पे वक्त मुझे
देर तक बिठाये रखता था
और फ़िर सवेरे में धकेल देता था

मैंने सारे हाथ छोड़ दिए थे
उसका हाथ थामने के लिए
अब कोई चारा नही था, गर वो छलावा थी

Friday, August 7, 2009

तुम्हारे मूड का भी न, कोई भरोसा नही !

एक अरसे बाद
बिताया सारा दिन आज तुम्हारे साथ

सुबह, तुम्हारे ख्वाब में आँख खोली थी
फ़िर बरामदे में कुर्सी डाले मारता रहा तुमसे गप्प
पूरे इत्मीनान से,
इसी बीच खत्म की चाय की दो प्यालियाँ भी

फ़िर कमरे में आकर,
रोशनदान से आती हुई धुप की जिस बारीक गरमाहट में
भींगता पड़ा रहा देर तक बिस्तर पे,
वो भी तुम्हारी हीं थी

जब नहाने गया तो
वहां भी आ गई तुम
पीठ पे साबुन मलने के बहाने

परोसा खाना अपने हाथ से
खाया मेरे साथ हीं आज कितने दिन बाद
और मेरे सिंगल-बेड पे मेरे साथ लेट कर फ़िर
सुनाती रही मुझे नज्में

फिर जरा सा आँख लगते हीं जाने कहाँ चली गई
उठा तो देखा कि शाम थी और उदासी थी

तुम्हारे मूड का भी न, कोई भरोसा नही!

Wednesday, August 5, 2009

तुम आ कर मना लो ना !

लाख शब्द जोड़े
धुन जगाया
सजायीं स्वरलिपियाँ
पर बोल बजे नहीं

चुप बैठे हैं सारे गीत
आवाज जैसे रूठ गई हो

तुम आ कर मना लो ना !

Monday, August 3, 2009

पैबंद

समय घिस-घिस कर फटता रहा
और हम उनपे पैबंद लगाते रहे

कुछ यूँ ही गुजरी जिंदगी हमारी

हालात तो हमने ढक दिये पैबंदो से
पर पैबंदो को हम नही ढक पाये.

Sunday, August 2, 2009

तुम्हें तो मालूम था न !!

तुमने तो किया था प्यार

तुम्हें तो मालूम था
क्या होती है
विरह की वेदना

फ़िर कैसे छोड़ दिया
तुमने मुझे
अपने प्यार में अकेले

तुमने तो किया था प्यार
तुम्हें तो मालूम था न !!

Friday, July 31, 2009

कुछ नज़्में, जो छूट जाती हैं अधूरी !

कुछ ग़ज़लें, कुछ नज़्में
जो उलझ जाती है मकड़जाल में
कुछ बातें, जिन्हे लम्हों की तनी रस्सियों पर चलना होता है
कुछ एहसास और खयाल
जो पिघल कर उतरते नहीं कागज़ पर
किसी भी मौसम में
कुछ चित्र और रंग जिनको आँख में आने की वजह नही मिलती
-----
और इस तरह की कुछ और भी चीजें
जो अधूरी रह जाती हैं
छोटी-छोटी वाहियात वजहों के चलते

हैं मेरे पास बड़ी तादाद में

हालांकि अपने अधूरेपन में पूरी तरह
जिंदा रहना आता है उन्हें
और वे सालों साल से सांस ले रही है मेरे साथ

और धीरे धीरे तो वे पूरी भी लगने लगीं हैं
क्योंकि असलियत में
हम भूल गये हैं उनके अधूरेपन को
और साथ ही साथ
उन्हें पूरा करने की अपनी जबाबदेही को

पर उन्हें भूल जाना
उन चीज़ो को, जो छोटी-छोटी वाहियात वजहों के चलते
अधूरे रह जाते हैं,
उन्हें क्या हमेशा के लिए अधूरा नही छोड़ देता?

Thursday, July 30, 2009

किसी ने जोर से दे मारा है रिश्ता !

बिखरा है यकीन
वफाओं के टुकडे फैले हैं फर्श पर
किसी ने जोर से दे मारा है रिश्ता
फ़िर से दीवार पर

घर का नक्शा फ़िर से तितर-बितर है
घर फ़िर से कोहराम है

मेरे हाथो पे बहुत सारे निशान हैं अब
वैसे जो कटने से बनते हैं

टूटी वफाओं के टुकडे उठाओ तो
हाथ तो कटते हीं हैं

तोड़ने का कारोबार है उनका
और अब मैं भी उसमें शामिल हो गई हूँ.

Wednesday, July 29, 2009

कुछ कोशिशें अपने कदम रोक लेती हैं

कुछ फ़ासले पर कोहरा है थोड़ा
जिसके उस पार जाने की लगातार कोशिश कर रहा है
एक एहसास
पर चीर कर पहुँच नही पा रहा.

जज्बों में धूप शायद उतनी तेज नही

कोहरे के उस पार
जीवन
दरवाजे के पल्ले भिडाये
कमर तक रजाईया लपेटे
इंतेज़ार कर रहा है किसी खटखटाहट का
दरअसल, उसी एहसास के दस्तक का.

सब कुछ कितना आसान सा है
पर नही मालूम क्यूँ
कुछ कोशिशें अपने कदम रोक लेती हैं,
या फिर कदम बढाने में बहुत वक़्त लगता है.

(यहाँ शायद यह बता देना जरूरी है कि ये कविता कभी जाडे के मौसम में लिखी गई थी.)

Monday, July 27, 2009

दोहरी तनहाई में

एक तो अपनी ...
और दूसरी तुम्हारी...
दोहरी तनहाई में जीता हूँ रोज

शायद तुम भी जीती होगी कुछ इस तरह ही

रोज शाम
वे दोनो हीं मिल जाती हैं
समंदर के साहिल के समानांतर बैठी हुई

तुम्हें भी दिखाई दे हीं जाती होगी कभी वे
तुम भी साहिल पे बैठती हीं होगी

तन्हाई हमें साहिल पे हीं तो ली जाती है

वे रहती हैं सूरज डूबने तक वहीं
मैं लौट आता हूँ उन्हें वही छोड कर

तुम्हें भी लौटना होता होगा
अंधेरा होने से पहले

अरसे से हम जी रहे हैं दोहरी तन्हाइयां
अरसे से हमारा जीना बंद है

Saturday, July 25, 2009

फेफड़े भर साँस के लिए

जरा सा भी कमतर नही !

उतना हीं,
और कभी कभी तुमसे ज्यादा
एहसास है मुझे
तुम्हारी रगों में बेचैन लहू का
जो कत्ल होकर
बाहर आ जाना चाहती है
फेफड़े भर अंतिम सांस के लिए

मुझे मालुम है क्यूँ उठ रही हैं
ये इतनी ऊँची-ऊँची लहरें तुझमें
क्यूंकि ये उठती रही हैं मुझमें भी
और ये भी कि
इस वक्त तुम अपने दुःख के पहाड़ को
आंसुओं से ढक देना चाहते हो
और इस लिए इतना ऊँचा रो रहे हो

या फिर चाहते हो कि
इस दुनिया का वजूद इसी क्षण पिघल जाए
क्यूंकि जिसको लेकर ये दुनिया थी
वो बह कर जा चुकी है

मैं चाहता हूँ कि
गले लगा लूं तुम्हें
तुम्हारे इस कठिन समय में

क्यूंकि ये खुद को गले लगाने जैसा है

और चाहता हूँ कि
समय
किनारे पे खड़े होकर हंसने के अलावा
कुछ और भी करना सीखे

Friday, July 24, 2009

देखो तो दिल धडकनों से भर गया

देखो तो दिल

धडकनों से भर गया

साँसों को चुपके से

ये कौन छू कर गया


ये कौन छू गया, किस सपने ने

मेरी जबां नींद को

मेरी नींद की रुखसारों को

ये कौन लाल कर गया


बड़ी
खामोशी से तन्हाई उभरती है

फिर उस तन्हाई से तू गुजरती है

कैसे टूटी ये खामोशी

ये कौन आहट कर गया


दिल
को गुमान हुआ है

तू मेरा मेहमान हुआ है

अरे! ये ख्वाब के पाँव क्यूँ रुक गए

ये कौन अचानक से उठ कर गया

Thursday, July 23, 2009

चिमटे से बस इतना हीं पकड़ा गया...

(1)

पहले

तो तुमने छेड़ दी तार

और अब

जब संगीत बजने लगा है तो

कान बंद कर लिए तुमने !

(2)
जो हाथ

कभी दूर से हींबुलाने लग जाते थे,

पास आकर

कंधे पे आ जाते थे

वे अब यूँ हीं जेब में पड़े रहते हैं.

(३)

शामें

अब कुछ यूँ गुजर जाती है

कि बैठना नही हो पाता
अपने
पास

ख़ुद को महसूसते हुए

(५)

दुःख भी दो तरह के होते हैं
एक तो होता है
और दूसरा, कोई देता है

Wednesday, July 22, 2009

मैं, आप, सब....

साहिल समंदर के बाजू में बैठा
लहरों का इंतेज़ार करता रहता है

समंदर चाँद को छूने की आजमाइश में
किनारे पे बौछार करता रहता है

चाँद रात की मलमली विस्तर पे
रौशनी का मनुहार करता रहता है

उजाला कायनात के जर्रे-जर्रे में जा कर
अंधेरे को प्यार करता रहता है

तमस हर शाम अपनी ठंढई से
सूरज का स्रिन्गार करता रहता है.

हर शाम सूरज सिर रख कर सोने के लिए
साहिल की गोद का इंतेज़ार करता रहता है.

Monday, July 20, 2009

आवाज शोर की तरफ़ जा चुकी है

एक ऐसी दुनिया थी
जहाँ
आवाज कानो में नही गिरते थे
जब तक कि उसे शोर से भारी न बना दिया जाये

क्यूँकि वहां के लोग
धीरे-धीरे अपने कान मौके के अनुसार
ढालने में सक्षम हो गए थे

उसी दुनिया में
कुछ लोग
अपनी खामोशी लेकर खड़े हो जाते थे
सुने जाने के इन्तिज़ार में

उन खड़े लोगों को
उस दुनिया से
समय रहते निकाल लिया जाना जरूरी था

पर उन लोगों को
वहां से निकाल लेने का हुनर
किसी के पास नही बचा था.

Sunday, July 19, 2009

यह एक कमजोर समय है मेरे लिए.

यह एक कमजोर समय है मेरे लिए.

एक कमजोर समय,
जब मैं सोंचने के लिए मजबूर हूँ,
तुम्हारी हरी हंसी के बारे में
ऑक्सीजन से भरी बातों के बारे में
तुम्हारे होंठ और तुम्हारे गेशुओं के बारे में
तुम्हारी बेवफाई की तमाम हरकतों के बावजूद.

इस कमजोर समय में
मैं चाहता हूँ
कमजोर हो जाओ तुम भी इतना
कि रोक न सको खुद को पुकारने से नाम मेरा
और आ जाओ दौड़ती हुई
लग जाओ गले

ताकि मैं हमारे बिखराव पे हाथ रख दूँ

तुम रोओं
और मैं भी

और फ़िर इतने दिनों से
ठहरा हुआ रिश्ता फ़िर से चल पड़े

यह एक कमजोर समय है मेरे लिए
और ऐसा दिन में कई बार है .

Saturday, July 18, 2009

नींद कों अभी और जागना था !!

उसने सांस छुडा लिए अपने
अब मैं बिना धड़कन हूँ

उसकी यादें रिसती रहती हैं
मन पे काई जम आई है

तुम एक सुकून की रात हो
तुझमें जाग कर यूँ लगता है

कोई मुकम्मल नज्म नहीं है अभी
मुकम्मल तो कुछ भी नहीं

कमरे में सांस बची नहीं थी बिलकुल
उसने सारे दरवाजे बंद कर दिए थे

हम थकने की हद तक थक गए थे
पर नींद कों अभी और जागना था

अरसे तक रिश्ते खुले रह गए
फिर वे कहीं चले गए बिना बताये

तुम अपनी बाहों में फैला लो मुझे
तंग गलियों में मेरा ठिकाना है

Tuesday, July 14, 2009

मैं शुतुरमुर्ग होना चाहता हूँ !

यह मेरा हीं दुःख है
जो मुझे रुलाता है

बाहरी दुनिया के सारे दुःख
बस एक अतिरिक्त कारण हैं

पर सोंचता हूँ की
ये जो बेबात का इतना दुःख है
इसका उदगम कहाँ है
या मैं दुःख खींचने वाला चुम्बक तो नहीं

मैं भी
बहुत सारे अन्य लोगो में
शामिल हो जाना चाहता हूँ
जो हास्य फिल्में देखते हैं
बिना बात के हंसते हैं
और हंसते हुए घर लौट आते हैं
शाम को बैड्मिन्टन खेलते हैं
और राजनीति पे चर्चा करते हैं

मैं शुतुरमुर्ग होना चाहता हूँ !

चीजें जो कभी करती है खुश और कभी उदास !

इस कायनात के
बहुत सारी चीजों में से
कुछ चीजें ऐसी हैं
जो कभी कर देती है खुश और
कभी उदास, वही चीजें

वे चीजें करीब होती हैं दिल के

इतने करीब कि
निकलती हैं साँसों को छूते हुए

मोहल्ले के चौराहे से
निकलती थी जो राह तुम्हारे घर के लिए
उन पर अक्सर अपने ख्वाबों को चलते देखा है

उस बरगद के नीचे अक्सर बैठी मिल जाती है मेरी छाँव
जो तुम्हारे स्कूल के रास्ते में पड़ाव था

गर्मी की दुपहरी में
मिल जाते हैं मन के झूले
उस आम के पेड़ से झूलते हुए
जहाँ झूला करती थी अपनी सहेलियों के साथ तुम

और ऐसी ही कुछ और चीजे बहुत करीब हैं दिल के
जो कभी करती रहती है खुश और कभी उदास

एक नींद की पगडंडी पर साथ-साथ

हमारे ख्वाब
मिलना चाहते थे
ताकि देख सके एक दूसरे को
पहचान सकें सूरत
एक दूसरे की

वे कुछ देर
साथ चलना चलना चाहते थे
एक ही नींद की पगडंडी पर, हाथ थामे
शायद चुप-चाप खामोशी सुनते हुए
या फ़िर बतियाते हुए

पर हम थे
कि अलग-अलग आंखों से सोते थे.

Saturday, July 11, 2009

और लहलहा उठी हैं यादें

देर से आया है
पर बरस रहा है मानसून

मानसून के न आने की ख़बर
मुझे कर गई थी उदास

जब भी बरसता है मानसून
मैं बालकनी में कुर्सी डालकर
बैठ जाता हूँ और
देखता रहता हूँ तुम्हें

कभी सामने पार्क में
मेरे साथ भींगते हुए
कभी सड़क पे पानी के छपाके उडाते

देर से आया है
पर बरस रहा है मानसून
और लहलहा उठी हैं यादें

Friday, July 10, 2009

पर तब सिर्फ राख बची थी

सालों साल
सूखता रहा दरख्त
धूप में खड़ा, अकेला

पहले पत्ते छूटे हाथ से
फिर एक एक कर छूटीं टहनियां
उधडी फिर खाल भी

पर सावन की आँख उमड़ी नहीं

सूखा दरख्त और कितना सूखता
जल गया एक दिन

जला जब दरख्त
तो बादल काला हुआ धुएँ से
और तब बरसा सावन

पर तब सिर्फ राख बची थी गीली होने के लिए...

Wednesday, July 8, 2009

साकी.

तू किनारे पे करना इंतेज़ार साकी
मैं लौटूँगा फिर इस पार साकी

बिक जाएंगे एक दिन कौडियो में सब
तब भी बच जाएंगे ये बाजार साकी

अरसे से महरूम रखा आँसुओं से
आँखों का हूँ बड़ा मैं गुनहगार साकी

तेरे घर का दरवाजा हर दफ़ा बंद मिला
हम गुजरे तो तेरी गली से कई बार साकी

कह जाएंगे जिस रोज हम आखिरी अलविदा
रोएंगे फूट फूट ये दर-ओ-दीवार साकी

Monday, July 6, 2009

उस रोज सिर्फ रिश्ते नहीं काटे तुमने

काट कर छोटा कर दिया तुमने
हमारे रिश्ते को

उस रोज सिर्फ रिश्ते नहीं काटे तुमने
मैं भी साथ कटा था

कटी तो तुम भी होगी हीं
आखिर
उस रिश्ते में तुम भी तो थी

पर जाने कौन सी जंजीरें थीं

कि धार रख दिए थे तुमने रिश्ते पर ???

कुछ कच्ची नज़्में

कच्ची रह गयी कुछ नज़्में
इस बार भी आम के मौसम में

अभी और बड़े होने थे
पकने थे, और खूशबुएं आनी थी उनमे से

पर तेज अंधर आए
और झाड़ गये डालियां

जिसके हाथ जो लगा
वही लूट ले गया

हर साल लूटी जाती हैं कुछ कच्ची नज़्में

Friday, July 3, 2009

ताकि हंसती रहे पृथ्वी !

तुम्हीं से सीखा मैंने
जमी हुई,
दबी रुलाई को
बहा देने का हुनर

तुम खोज लेती हो
कोई कन्धा, कोई गला, कोई छाती
और रो लेती हो कुछ देर
सब कुछ भुला कर
और कभी कभी ज्यादा देर भी

तुम्हीं ने सिखाया
गले में गला ,
छाती में छाती डाल कर
रोना सारी मनुष्यता कों

कहीं भी, किसी भी हालात में
तुम रो सकती हो
सुर में सुर मिला कर
और सहला सकती हो
एक दुसरे के अनंत दुःख को
बस रो कर हीं

तुम्हें सृष्टि के शुरुआत से हीं पता है
कि अकेले रोने से अच्छा
किसी के साथ रोना है

तुम रो रो कर तैयार करती हो
आधार
कि पृथ्वी का हँसना जारी रह सके

वक्त मुझपे कर रहा है खाक से दस्तखत...

तुमने तो बताये नही
अपने दुःख,
अपनी परेशानियाँ
और मेरा मानना है कि
दुःख बांटे बगैर रिश्ते नही बनते

यूँ कब तक चलता
बिना रिश्ते के एक साथ जीना
बाहर-बाहर

आखिरकार हम नही रह पाए साथ
तुम नही हो
मेरे किसी रिश्ते में अब

और वक़्त
मुझपे कर रहा है खाक से दस्तखत...

जब मैं कहता हूँ तुमसे कि
वक़्त मुझपे कर रहा है खाक से दस्तख़त
तो सिर्फ़ यह मानते हुए
कि दुःख बांटे बगैर रिश्ते नही बनते

Thursday, July 2, 2009

अपने बिके देह में

आज फिर बेच दिए
नींद की कतरने हमने
आज फिर बाजार की चढ़ती-उतरती दामो के साथ
बाँध दिया खुद को.

आज फिर अपने बिके देह में रहना होगा मुझे
आज फिर रूह कर्ज से होकर गुज़रेगी

Wednesday, July 1, 2009

तेरे बगैर अक्सर

शामें ढल जाया करती हैं तेरे बगैर अक्सर,
अक्सर ही तेरे बगैर !

जो ढल जाया करती हैं शामें तेरे बगैर
मत पूछो कि उन शामो की रातों का क्या होता है

नीली पड़ी रहती है उनकी देह
जैसे कोई जख्म उभरते उभरते रह गया हो
भीतर का दर्द बाहर न आ पाया हो जैसे

जैसे बिस्तर पे उग आए हों पानी वाले फफोले
जिन पर जरा सा दबाब गिरे
तो फूटने का अंदेशा हो.

वे रातें कटती नहीं किसी भी आड़ी से

कोई भी सुई निकाल नही पाती
नींद के पाँव में
चुभी उस कील को,
जो सोने नहीं देती रात भर

वो शामें
जो ढल जाया करती हैं
तेरे बगैर अक्सर .....

Sunday, June 28, 2009

दो मजबूर लोग !

तुम मजबूर थी

प्यार हो नहीं पाया था तुम्हें



मैं मजबूर था

प्यार हो गया था मुझे

इश्क में

रिश्ते घने हो जाते हैं जब
कोहरे की तरह,
तो इश्क हो जाते हैं

तभी तो दिखाई नही देता
कुछ भी इश्क में.

Saturday, June 27, 2009

पतझड़ के उन्ही सुखे पत्तों पर !

गुजरता रहेगा वक़्त
पर मौसम टंगे रहेंगे
पतझड़ के उन्ही सुखे पत्तों पर

आर पार जाती रहेंगी साँसें पर
ह्रदय पर के दबाब कम नही होंगे

पसरती रहेगी धूप
छत और आंगन के कंधों पर
पर छू नही पायेगी वे देह की सीलनो को

बहुत सारा पानी बहता रहेगा पर
रक्त टिका रहेगा वहीँ
जहाँ कटे थे रिश्ते

लिखी जाने वाली किताबें
तेरे किरदार के इंतज़ार में
गुमसुम बैठी रहेंगी

तेरे लौटने तक
सब कुछ टंगा रहेगा
मेरे साथ दीवार की खूंटी पर

Friday, June 26, 2009

उसकी हथेली में मेरा क्षितिज रहता है ! !

राह में पूरी हुई
तलाश मंजिल की

मिल गयी तेरी उँगलियाँ
थाम कर चलने के लिये

मंजिल या मोकाम में और क्या होता है
सिवाए इस एहसास के

कि कोइ है
थामने के लिए
गर कभी लम्हें लड़खडायें

कि कोई है
जिसके कांधे पे अपना वजूद रख दो
तो और बढ़ जाए

कि कोई है
जिसकी हथेली में क्षितिज रखा जाए
तो वो और नूरी हो जाए

कि कोई है
जिसकी आँखों से
बहा जा सकता है धार बनकर
कभी मौका हो तो

और क्या होता है मंजिल या मोकाम में !

शुक्रिया
इस विराट सृष्टि का
जिसमे ये सब घटित हुआ

शुक्रिया
उस राह का
जिस पर वो राह मिली

शुक्रिया
उस तलाश का
जिसने खोजी मंजिल

और सबसे ज्यादा
शुक्रिया तुम्हारा
जो मेरे हाथ अपने हाथ में आने दिये।

Thursday, June 25, 2009

खिड़कियाँ खुली नही किसी भी दीवार पे

उसने कहना छोड़ दिया
और मैने भी

वो सारे शोर
जो कभी कमरे और
उनसे निकल कर बरामदे तक पहुँचते थे,
भीतर ही उमड़ने घूमड़ने लगे गुबार बनकर

पर खिड़कियाँ खुली नही किसी भी दीवार पे
और सांकलें चढी रही दरवाजों पे
हम अड़े रहे अपनी-अपनी जिद पर

हम बरसे भी,
पर भीतर ही
या किसी कोने में जाकर
अलग-अलग

पानी अलग अलग धाराओं में बह कर दूर निकल गये

आज हम सोंचते हैं
कभी हम एक साथ, एक कोने में
बैठ कर रो लेते.

Tuesday, June 23, 2009

बिना नज़्म के तुम्हें कैसे छुऊं !!

कभी-कभी
कोई भी नज़्म
उगा कर नही लाती सुबह

आ के बैठ जाती है
आँगन में अनमनी सी
जाने क्या सोंचती हुई
बैठी रहती है देर तक यूँ हीं

चाय पी कर भी ताज़ी नहीं होती ये सुबहें

उन रातों को,
जिनकी वे सुबहें होती हैं
नज़्म के बीज नही गिरते
आसमान खाली रहता है तारों के पेड़ से
और बादल भरे हुए

ऐसी सुबहों को
मैं बहुत परेशां रहता हूँ
कि बिना नज़्म के तुम्हें कैसे छुऊं !!

Monday, June 22, 2009

खिल कर गमले की मिट्टियो में

लिहाफ हो जाता है प्यार तेरा
ओढ के लेटता हूँ जब सर्दियो में

नजरो में रखता हूँ तेरी यादो के पन्ने
और पलट लिया करता हूँ उदासियों में

मौसम को यूँ बेकाबू किया न करो
खिल कर गमले की मिट्टियो में

गुनगुनी धूप में छत पे आ कर
बचा लिया करो मुझे सर्दियों में

तेरी दूरी ने बनायी खराशे जिस्म पे
और खरोंचे मेरी हड्डियो में

एक थोड़ा ठंढा सूरज उगाना है !

क्या तुमने देखा !!!

सुबह,
मैंने तुम्हारे गार्डेन में
जो धूप की कलमी लगाई है

उसमें पानी देती रहना

एक थोड़ा ठंढा सूरज उगाना है

आने वाले
गर्मियों के मौसम के लिए

तुम कहती रहती हो न
कि ये सूरज आजकल बहुत गर्म रहता है!

Sunday, June 21, 2009

उसका जाना...

वो सारे सामान ले आई थी
लौटा देने के लिए।

वो हमारी आखरी तय मुलाक़ात थी
जिसमे उसे मेरा दिया
सब कुछ लौटा देना था
और फ़िर
एक लंबे गहरे रिश्ते से मुंह फेर लेना था

उसे खुरच देने थे
मेरी यादों के सारे निशान
समय की देह से
और मुझे अजनबी दुनिया मैं फेंक कर
खाली हो जाना था

निकाल कर रख दिए उसने
एक-एक कर सारे सामान
और उनके साथ वे सब ख्वाब भी,
जो आँखों से निकालते वक्त
नमकीन हो गए थे.

फिर न जाने कितनी देर
हम भींगते कमरे में बैठे रहे
और आखिर में
जब निकलने का वक़्त हुआ
तो इतनी तेज बारिश कि...

आखिरकार उस तेज बारिश में हीं जाना हुआ

मैंने उसके दुपट्टे के कोने में
शगुन के एक सौ एक रुपये बाँध दिए और
उसने निकलने से पहले मेरे पैर छू लिए।

Friday, June 19, 2009

वे गुलमुहर के पेड़ वहां पहले नही थे

मेरी बांहों पे
अपना सर टिका कर
तुमने जो तय कर दिए थे
मेरी जिंदगी के रास्ते

उन रास्तों से
तुम भी कभी फ़िर गुजरो
तो देखना
उनके दोनों तरफ
गुलमुहर के पेड़ खड़े मिलेंगे
हमेशा अपने लाल फूलों के साथ

वे गुलमुहर के पेड़ वहां पहले नही थे

साकी

वहीं पे है पडा अभी तक वो जाम साकी
निकल आया तेरे मयखाने से ये बदनाम साकी

नजर में ठहरी हुई है वो तेरी महफिल अभी तक
जो पी आया तेरे होठो से एक कलाम साकी

हो न जाये ये परिंदा कोई गुलाम
कहते हैं शहर में बिछे हैं पिंजडे तमाम साकी

मुझे मालूम है मेरी गुमनामी के बारे में
तमन्ना है तुझको करे सब सलाम साकी

लिखने लगे जो अपनी दास्तान साकी,
उसमें आने लगा बार बार तेरा नाम साकी

खुदा हाफिज़ करने में है न अब कोइ गिला
उसकी तरफ से आ गया है मुझको पैगाम साकी

Thursday, June 18, 2009

अपनी देह का इंतज़ार करते!

तुम चली गई थी
पर तुम्हारे जाने के बाद
अब भी वहीँ
पार्क की उसी उदास बेंच पर
बैठी हुई है रूह
अपनी देह का इंतज़ार करते

एक देह वहां है

पर उसे वो अपना मान नही रही

Wednesday, June 17, 2009

मांग लेना मेरी उँगलियों की मदद

ख्वाब बुनने में
कभी उलझ जाए कोई ताना,
छूटने लगे कोई सिरा कभी
या फ़िर घिस जाए, टूट जाए


कभी महसूस हो जरूरत
तो संकोच मत करना

अवश्य मांग लेना मेरी उँगलियों की मदद

तुम्हारे ख्वाब के ताने
नही होंगे मेरे न सही,
पर उन तानो पे
मेरा स्पर्श
मुझे बचाता रहेगा
अपने होने की व्यर्थता के एहसास से

Tuesday, June 16, 2009

तेरी आवाज में मेरा नाम!

बियाबान मौन का है
और ये बंजारा जिस्म, मेरा
और एक भटकाव है उस मौन में
जो ख़त्म हीं नहीं होता

आँखे तेरी गुम हो गयी आवाज के निशाँ ढूँढती है

वक्त खानाबदोश हो गया है
रोज डेरा बदल लेता है
गाड़ देता है तम्बू , जहाँ भी कोई आहट ,
धुंधली सी भी आहट सुनाई दे जाती है
तेरी आवाज की

बस एक बार वो ध्वनियाँ मिल जाएँ
जिनमे तुम बुलाया करती थी मुझे
तो अपना वक्त उससे टांक दूं
और खत्म करून ये सफ़र.

Sunday, June 14, 2009

उसने भी किनारे कर दिया मुझको !

उफनते समंदर में
डाल दिया ख़ुद को

उसकी आगोश में
गहरे डूबने के लिए

उसके पानी में
हमेशा कुछ छलकता दीखता था
मुझे लबालब करने को आतुर

सो उसकी अथाह उफनते पानीदार आगोश में
सरक गया मैं

पर उसने भी बहा कर
किनारे कर दिया मुझको

Saturday, June 13, 2009

दीवारें, जो एक घर बनाती थीं

गुजर गयीं दीवारें
दीवारें, जो एक घर बनाती थीं

पहले वे सीली हुईं
फ़िर धीरे-धीरे
उखड-उखड कर गिर गए पलस्तर
और फ़िर नंगी हो गई इंटें

रिसने लगी फ़िर
छत की आँख भी एक दिन
पर वो भूला हीं रहा
घर नही लौटा

भींग कर मोटी होती रहीं खिड़कियाँ और किवाड़
फ़िर पल्ले लगने बंद हो गए

अंतर्मन बैठा पसीझता रहा
और इंतज़ार के आख़िर में
गल कर पानी हो गया एक दिन

बे-लिबास रिश्तों को
पानी होने से
कब तक बचाया जा सकता है

Friday, June 12, 2009

तुम्हारी खिड़की पे रख दिया करूंगा सुबह!

सुबह-सुबह

अलसुबह

हर रोज , एक सुहानी सुबह

मैं रख दिया करूंगा

तुम्हारी खिड़की पे


तुम ले लेना जाग कर


मैं नहीं चाहता कि

रात भर तुम मेरे साथ

रह कर मेरे ख्वाबो में

किसी और की सुबह से दिन शुरू करो.

Thursday, June 11, 2009

प्यार के पीले हो जाने के पहले !

ये कुछ अन्तिम पंक्तियाँ हैं
जिन्हें मैं लिख लेना चाहता हूँ
जल्दी से,
तुम्हारे प्यार में


उजला गहरा छलछलाता प्यार
जो कल तक तुम्हारी आंखों में दीखता था
बदल कर पीला हों चुका है


और ख्वाब किरचों में बदल कर
नींद को लहुलुहान कर चुके हैं


वो इन्तिज़ार भी अब ख़त्म होने को है
जिसके बाद
बेवफा की शिनाख्त हो जाती है
और उस पर मुहर लगा दी जाती है


इसके बाद
जो भी लिखा जाएगा
उसमे नफ़रत, एक अपरिहार्य भाव होगा


पर इससे पहले
मैं लिख लेना चाहता हूँ
अन्तिम पंक्तियाँ प्यार की
ताकि लौटा जा सके कभी उस प्यार में
और उसके ख्वाबों में
इस नफरत से उबर जाने के बाद।

Wednesday, June 10, 2009

अब घर से नहीं भागती लड़कियां !

( यह कविता लिखते वक्त जेहन में आलोक धन्वा जी की कविता-भागी हुई लड़कियां- कि कुछ पंक्तियाँ थी। इस कविता कों आप http://chitthanama.blogspot.com/2008/09/blog-post_12.html, यहाँ पढ़ सकते हैं ).


घर से नहीं भागती लड़कियां अब

कभी कभार, इक्का-दुक्का हीं
खबर मिलती है कि
फलां लड़की भाग गयी
या फिर वो भी नहीं मिलती

न अब घर की जंजीरें वैसी रहीं शायद
न लड़के, जिनके साथ भागती थी लड़कियां
न वैसा प्यार, जिनके लिए भागा जा सके
और न ख़ुद लड़कियां हीं
घर से भागने की हद तक प्यार करने वाली

या शायद
एक और बात हो सकती है कि
लड़कियों का भागना अब कोई खबर हीं न रह गया हो

लड़कियों का न भागना
या उनके भागने पे कोई खबर न बनना
समाज के बदलाव की एक महत्वपूर्ण खबर है
जिसके लिए अभी कहीं जगह नहीं है

Tuesday, June 9, 2009

ध्यान

दुःख गर
बहुत गहरा हो जाए
और सारी चेतना
उसी दुःख के कील से बींध जाए तो
ध्यान का जन्म होता है

आजकल दोनों आँखों के बीच वाली जगह पे
चेतना
दुःख से बीन्धी हुई रहती है
और मैं ध्यान में .

Monday, June 8, 2009

किस तरह तुम छू पाओगी बसंत अब !

अब
किस तरह तुम
छू पाओगी बसंत
जबकि
अभी-अभी तुमने
बुहार कर
एक जगह इकठ्ठा किये गए
सारे पतझड़ को
पैर मार कर
सभी मौसमों पे छीतेर दिया है

Sunday, June 7, 2009

बदन पे हरा उगा नही कुछ जाने कबसे...

कितना तय होता है
लौटना
हरे पत्तों का, पेड़ों पर
पतझड़ के बाद

पेड़ अच्छे हैं
बहार का इंतज़ार
उनके लिए
इतना लंबा और अनिश्चित नही होता ...

जाने कबसे बैठा हूँ
उसकी आमद के इंतज़ार में
बदन पे हरा उगा नही कुछ जाने कबसे...

Friday, June 5, 2009

रात, नीम और मैं !

सारी रात
मैं उस नीम के
गले लग के रोती रही

सुबह देखा तो
वो और लहलहा रहा था

मेरे आंसू भी
उसने सींचने के वास्ते
इस्तेमाल किए होंगे

Tuesday, June 2, 2009

शरीर में टिके रहने की वजह

शरीर में टिके रहने की वजह
देती है साथ कोई तमन्ना


एक ख्वाहिश है जो
नही जाती छोड़कर कभी


कोई ख्वाब है जो
कभी रूठता नही


टूटता नही है एक
नशा है जो उम्मीद का


मन के आले में अरमानो का एक दीया है
जो अपनी लौ नही समेटता


एक जिंदगी है जो
कभी मरती नही


और कितनी चाहिये वजहें
इस
शरीर में टिके रहने के लिये.

जानते थे वे नही आयेंगी

वो शाम का किनारा जिसके उस तरफ तुम्हारा समंदर डूब गया था
और जिंदगी की सारी लहरें गायब हो गयी थी अचानक धूंधलके में
उसी किनारे पे मेरी ख्वाहिशें ठहर गयी थीं।

पूरा
का पूरा जिस्म झोंक दिया एक छोटे पेट के वास्ते
मुझे याद भी आईं बहुत बार, वो ठहरी हुई ख्वाहिश
और मैं भूला भी बहुत बार।


पर
जब कभी जिस्म को फुरसत मिली पेट से
देखा जरूर उस किनारे को
जिसके उस तरफ तुम्हारा समंदर डूब गया था
और उन लहरों को जो गुम हो गयी थी अचानक।

ख्वाहिशें तो वहीं ठहरी हैं आज भी
बुलाया भी नही, आवाज़ ही नही दी,
जानते थे वो नही आयेंगी!

Sunday, May 31, 2009

मेरे रंग रखना सहेज कर

दरवाजे रंग लिये खडी रहीं
तुम्हारे पाँव देहली तक फिर लौट कर नही आये

मेरे आधे रंग अभी भी यूँ ही पडे हैं
शुक्र है कुछ तुम साथ ले गयी थी

चौखटो ने रंग धोये नही
शाम तक इंतिज़ार किया तेरी आहटो का
हालांकि वे जानती थी कि तुम्हारा पाना होगा असंभव सा
तुम्हारी पैरों में कोई और ही दहलीज जो बंध गयी है
पर फिर भी इंतिजार किया
शायद अपने सुकून के लिये

कभी यूँ भी लगता है
कि तुम गयी ही कब थी और ये इंतिज़ार क्यों है
पर फिर भी ......

अच्छा लगता है ये सोंच कर कि
मेरे कुछ रंग तुम्हारे पास रहेंगे हमेशा
उन्हें रखना सहेज कर
और देख लेना उन्हें
कभी अगर लगे कि जिंदगी बेरंग होने लगी है

वे रहेंगी तुम्हारे पास तो मेरी होली आती रहेगी

Wednesday, May 27, 2009

तुझे देखा है कई बार ख्वाब में

तुझे देखा है कई बार ख्वाब में
सोचता हूँ कोई शेर लिखू तेरे किताब में

बडी देर तक आंखे रही बेचैन
जो छिपा लिया तुने चेहरा हिजाब में

जाने कब तक लहरे रक्श करती रही
जाने किसने मिला दी समंदर शराब में

तुमने तो खोल दी अनजाने ही में आंखो की धार को
तुम्हे क्या पता कौन बह गया उस शैलाब में

हम पीते है, हमे मालूम है
कितना तो नशा है उनकी नजर में और कितना शराब में

करे जो कोई सवाल आडे- तिरछे तुमसे तो
कह देना उनसे कि तुम रहते हो खुदा के रुआब में

Tuesday, May 26, 2009

जितना भी तुमने छुआ है मुझे !

मैं रोज जी लिया करूंगा
अपनी हथेली पे
स्पर्श तेरी हथेली का

हथेली पे घटित हुआ वो स्पर्श
रोज घटा करेगा हथेली पे

तुम्हारी वो छुअन
कभी नर्म धुप की गुनगुनी रजाई
और कभी भींगी हुई भदभदाती बारिश

कभी फुर्सत में गुफ्तगू करता पूनम का चाँद
कभी पहाडों से बहकर आती हुई बयार की गुदगुदाती खुशबू

और कभी ...
उदास लम्हों में लबों पे हरकत करती
एक जिन्दा मुस्कान भी

टिका रहेगा वो स्पर्श हमेशा मेरे शाख के पत्तो पर

तुमने जितना भी मुझे छुआ है
उसकी लचक को जिस्म पे पहन के
मैं हमेशा बना रहूँगा बसंत
ये वादा
मैं कर देना चाहता हूँ तुम्हारे जाने से पहले.

Sunday, May 24, 2009

कैक्टस से बढ़ कर है प्यार!

गर्मियों के मौसम आ गए,
आँगन में
देर तक सीधी तेज धूप गिरती है

नमी के कतरे
एक-एक कर उडे जा रहे हैं
और जल्द हीं खत्म हो जाने को हैं

आँगन की मिटटी
और रेत के बीच के सारे फर्क
लू के थपेडे बहा ले गए हैं

वो भी अपना सारा बादल समेट कर
आसमान के दूसरे कोने में चली गई है

पर आँगन में, उगाया था
जो पौधा प्यार का
अभी भी सूखता नही

जाने कहाँ से लेता है नमी
और कैसे बचाता है लू के थपेडों से ख़ुद को

सूखे रेतीले मौसमो के थपेडो में
टिके रहने के नजरिये से
कैक्टस से बढ़ कर है प्यार!

Friday, May 22, 2009

जो बह गये पानी

मिल बैठ कर
बात कर लेते हैं
जब मन, भरा बादल हो जाता है
साथ में बरसना भी हो जाता है कभीकभार
जब पुरवइया के झोंके विरहा गाते हैं

किसी पुराने समय के हिसाब में
खुशियों को चुनौती दे दी गई
मार दी गई चुन चुन कर
उनकी किलकारियाँ
खौफ की डुगडुगी
डंके की चोट पर बजायी गयी
लहू बहाये गये

घर के दीवारो से लग कर सिसकियाँ बोलती रहीं
पर कहीं कोई कान नही हुआ मौजूद

धरती के सीने पे दर्दो के चकत्ते बडे होते गये
चक्कर खा कर
गिरते रहे हौसले और विश्वास के वजूद
और एक समय तक बंधे हुए सारे बांध टूट गये

जो बह गये पानी
उन्हीं की याद में वे
मिल बैठ कर बात कर लेते हैं
और बरस लेते हैं
जब मन भरा बादल हो जाता है।

डरी हुई कविता

एक लम्बा अरसा हुआ
एक हल्की सी उम्मीद और
एकाध मुस्कराहट के साथ
वक़्त फांकते हुए

धूल चटाने के हौसले खुद मिट्टी होने को हैं

आवाज उठाने वाले सिर महज
सिर हिलाने वाले न बन जाये
ये डर है

हाथों में कसी मुठ्ठियों की जगह
प्रार्थना लेने लगी है

बाजुओ में वो पहले से पंजे नही रहे

दिल में ये डर धीरे धीरे बैठ रहा है
कि एक दिन बदल जाऊँगा मैं भी
जैसे बदल जाता है एक आदमी
दुनिया के दबाब में
और दुनिया जस की तस बनी रहती है
चलती रहती है
ताकत, अन्याय और शोषण के पहियों पर



Thursday, May 21, 2009

कश में नहीं आयी

लबो पे हरकत करती रही
पर कश में नहीं आयी

हजार बार जलायी
पर तलब जली नही
धुएँ बनते रहे हालाँकि

रात कैक्टस के सिरहाने जागती रही
आँखों में नींद चुभती रही
यूँ ही पड़े पड़े थकता रहा समय

कमरा धुएँ सा ही रहा
दीवारें सलेती होती रहीं
बहूत देर इंतज़ार किया पर
कोई नही आया
सुबह ना ही नींद

Wednesday, May 20, 2009

ताजे मौन देना

ये बातें
जिनका अस्तित्व मौन में है
जीवित हैं इस उम्मीद में
कि किसी दिन तुम्हारी छुअन
इन्हे मिल जाए शायद।


ये बातें किसी दायरे में नहीं
उनके सपने हैं निराकार
इन बातों का बयान सुना जाना है अभी बाकी


ये
बातें फ़िज़ा में भटकती रहती है
बेचैनी से साँसें लेते हुए
बदते हुए शोर के बीच
इनका दम घूँटता रहता है

कभी वक़्त मिले तो छू
कर इन्हे थोड़े ताज़े मौन दे देना।

Monday, May 18, 2009

स्वर लहरियां दौड़ रही हैं!

पोंछ-पोंछ कर
जमा रहा है एक-एक स्वर
कोई, इन
बेतरतीब पड़े
धूल से पटे दराजों में
रैक और किचेन की पट्टियों पे

सन्नाटे ने अकेला महसूस करते हुए
शायद तहखाने में
पकड़ लिया है एक कोना

स्वर लहरियां दौड़ रही हैं पूरे घर में

आँगन में अरसे से सूखा पड़ा संगीत
भींग रहा है

यूँ लग रहा है जैसे
मौन का खाली घर बस रहा है

Friday, May 15, 2009

गुनगुनी धूप वाले मौसम

कुछ गुनगुनी धूप वाले मौसम होते हैं
जो पसर जाते हैं जिंदगी की अलगनी पर
कुछ इस तरह जैसे कि वे सारा पतझर ढांप लेंगें।
तमाम उगे हुए दर्द और सुखी हुई तन्हाईयाँ गिरा कर
वो भर देते हैं नंगी शाखों को कोंपलों से।
कोयल कूकती है, पपिहे गाते है
और योवन दुबारा पनपने लगता है।

गुनगुनी धूप वाले मौसमों को भी जाना होता है
वे चले जाते हैं

पर जब कभी चाँद मद्धम हो, रातें
सर्द और जिंदगी को कहीं दुबकने का जी हो
तो वो गुनगुनी धूप वाले मौसम उतर आते हैं अलगनी से
और ढांप लेते हैं अपनी धूप से

ऐसा ही एक मौसम मेरी डायरी में रखा है
वो मौसम तुम्हारा है
और उसमे तुम्हारी गुनगुनी धूप है।

Thursday, May 14, 2009

प्राणवायु में निरंतर उठापटक है

प्राणवायु में निरंतर उठापटक है

किसी दूसरे सफ़र पे
निकल जाना चाहती है आत्मा
मगर द्वंद में जकड़ी देह रोक लेती है

एक तरफ
जीवेशना और पेट की आड़ ले कर
पाप अपनी ईंटें जोड़ता है अनवरत
और दूसरी तरफ
एक भीड़ भरे चौराहे पे
चेतना अपने देह्गुहों में
मुक्ति के सपने समेटे खड़ी है

एक सवाल है जो अक्सर
चकरघन्नि सा घुमाता हुआ आता है
और हर बार पहले से तगडी चोट करता है

ख़ुशी की चौडाई
दुःख के गोलाई के न्यूनतम अंश से भी
कम पड़ती है अक्सर

दर्द इतना है
कि मन बार-बार अपनी साँसे बंद करता है

प्राणवायु में निरंतर उठापटक है

Wednesday, May 13, 2009

फिर मिल जाता है आसमान

फिर मिल जाता है आसमान
जब परिंदो में उडान लौट आती है

कल रात कुछ ऐसा ही हुआ
थका सा, एक शाख पे
वो बैठा था
जब छू गयी थी कोइ संजीवनी हवा
परो पे ताजे कुछ जोश उभर आए थे
और वो उड चला था
और देखा कि बेजान परो पे
फिर से वही उडान लौट आयी थी

उसके सामने
अब फिर से एक पूरा आसमान है
उस संजीवनी हवा में तेरा स्वर था प्रिये

Tuesday, May 12, 2009

दरारें

दरारें बनाती हैं ख्वाब, नींद में

एक लम्स छू गया था कल ख्वाब में
सुहाने एक मौसम की तरह
और उसे ढूँढता फ़िर रहा हूँ मै नींद नींद आज

कल कोई और छू जायेगा
और कल किसी और तलाश में हो जाऊँगा

ख्वाब देखता रहा हूँ
और खोजता भी रहा हूँ
इस उम्मीद में
कि शायद रूबरू हो कभी
पर कोई कितना भागे
और किसके पीछे
वक्त के साथ
ख्वाब भी तो बदलते रहते हैं
एक के बाद एक दूसरा ख्वाब और
एक के बाद एक दूसरी तलाश

और नतीजतन
अब सैकड़ों दरारें हैं नींद में

Monday, May 11, 2009

एक रिश्ता जो ठहर गया

वो पानी नही ठहरा.......

हजार दफा पोंछी आँख
पर
बहती रही
बारिश की नजर मुसलसल
गुबार के काले बादल
बरस कर खाली हो गए
पर सुबकिया थमी नहीं

ना सुबकिया ठहरी और ना वो पानी ठहरा

एक रिश्ता था जो बस ठहर गया था

Sunday, May 10, 2009

शहर, पुराने बाशिंदे, माएं और पिता

(मदर्स डे पर ....)

शहर
अपने
पुराने बाशिंदों को
पुराने पोलीबैगों में भरकर
कुडेदानों में
फेंक आया है

वे मिल जाते हैं
कभी रेल की
उन पुरानी पटरियों पे बैठे
जहाँ से रेल नही गुजरती
और कभी
पुराने उजडे बागों में
जहाँ अब उनके सिवा
कोई नही जाता

उनकी जिंदगी से अब
कोई नही गुजरना चाहता

वे सब पुराने बाशिंदे
अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा में हैं
वे सब
जिन्दगी को रोज कोसते हुए गुजारते हैं

उनमें माएं हैं और पिता हैं !

Friday, May 8, 2009

नींद से बिछड़ा हूँ मै

एक नींद से बिछड़ा हूँ मै

एक ख्वाब का टुकड़ा हूँ मैं



चील सी उड़ती हवाएं

धूप जैसे चोट खाए

कुछ संग थे जो अरमान वो अरमान बिखरते गए

साथ में बिखरा हूँ मैं



एक नींद से बिछड़ा हूँ

मै एक ख्वाब का टुकड़ा हूँ मैं



हालात गिरते गये

रंगरेज उजड़ते गये

धूप में धुंधले हुए सब श्याम पे ठहरा हूँ मैं ,

रंग का उतरा हूँ मैं



एक नींद से बिछड़ा हूँ मैं

एक ख्वाब का टुकड़ा हूँ मैं



Thursday, May 7, 2009

मैं हमेशा उसकी वन्दगी में रहूँ।

मुद्दत से आरजू है कि तेरी चाँदनी में रहूँ।
तुम छेड़ो कोई तार कि मैं जिसकी रागिनी में रहूँ

हर तरफ तेरी लिखावट हो और,
मैं तो बस सदा उसकी स्याही में रहूँ

खुदा के रहेम-ओ-करम तुम पर मुसलसल बरसते रहें,
और मैं हमेशा उसकी वन्दगी में रहूँ।

कभी फूल तू, कभी पत्ता और कभी छतनार बरगद हो,
हर हाल में मैं तेरी नमी में रहूँ।

हो तेरी खूबसूरती के चर्चे तमाम शहर में,
मैं तेरे हुस्न की सादगी में रहूँ

तेरे दिए की लौ कभी बुझने ना पाए,
और मैं हमेशा उसकी रोशनी में रहूँ।

Wednesday, May 6, 2009

लुप्त होते ख्वाब

सुबह पर धूप ने अभी अभी चादर लपेटी है
दूब पर बैठे ओस के परिंदे अपने पर फैलाने लगे हैं।
ख्वाब भी नींद की आरामगाह से निकल कर
अपने-अपने तलाश में
निकल करसड़कों पे दौड़ने लगे हैं।
अपनी अपनी गति से,
अपनी अपनी उम्मीद और धुन में,
अपने अपने पेट्रोल के सहारे।

एक ही सड़क पे
एक साथ दौड़ते ख्वाबों क़ी भी
बहुत जुदा हैमंज़िल ,
बहुत जुदा है
हाथ, कंधे और आँख

इतने तीव्र और बेचैन हैं वे कि
अपने लहू की कराहें भी सुनाई नही पड़ती।
या अनसुनी कर देते हैं कि दौड़ में आगे निकल सकें।

कोई बताए उन्हे याद दिलाए कि वे ख्वाब हैं
फुर्सत और नींद ज़रूरी है उनके लिए।
वरना वे शीघ्र हीं स्खलित हो जाएँगे
और उनकी अगली पीढ़ी कगार पे होंगी.

Tuesday, May 5, 2009

पतझड और सीलन

पतझर में जो पत्ते
बिछड़ जाते हैं अपने आशियाने से,
वे पत्ते जाने कहाँ चले जाते हैं
उन सूखे पत्तों की रूहें
उसी आशियाने की दीवारों पे
सीलन की तरह बहती रहती है

किसी भी मौसम में ये दीवारें सूखती नही
ये नम बनी रहती है

मौसम रिश्तों की रूहों को सूखा नही सकते

Monday, May 4, 2009

दिल को कोई काम नही है

कहीं कोई मुककमल मोकां नही है
जहाँ में कहीं भी चैन-ओ-आराम नही है.

तुमने मसला उठाया है तो कह देता हूँ
हम आशिकों से ज़्यादा कोई गुलफाम नही है.

जिस साहिल के बदन पे समंदर अंगराईयाँ लेता है
उस साहिल की भी कोई खुशनुमा शाम नही है

आज फिर उनके जानिब से ना कोई पैगाम आया
आज फिर दिल को कोई काम नही है.

जब तक चाहोगे बहेंगे तेरे समंदर पे
इस तिनके का और कोई दरिया-ए-जाम नही है.

एक और आख़िरी कोशिश कर के देखेंगे ज़रूर
इश्क के घर पहुँचना है कोई मंज़िल-ए-आम नही है.

Sunday, May 3, 2009

वक्त एक जगह है

(दरअसल वक्त एक जगह की तरह है जिसमे निर्वात जैसी कोई स्थिति नहीं होती वो जब खाली होती है तो खामोशी भर देती है जैसे जगह खाली नही रहती, हवा उसे भर देती है....)

[1]

बंद वक़्त के पीछे से
खुद को
उसके एक सुराख़ में डाल कर
जितना उसके नजर में आ सकता हूँ
आ रहा हूँ

भीतर कोई जगह खाली नहीं है!

वो आकर दरवाज खोलना चाहती है
पर वक़्त में इतना कुछ ठसा पड़ा है
कि आ नहीं पा रही

[2]

वो निकल गया था एक दिन
अपना पूरा सामान लेकर
और कुछ उसका भी
उसके वक्त में
बहुत देर रहने के बाद

उसके वक्त में दरारें पड़ गयीं थीं

मैं चाहता हूँ कि
उसकी दरारों में खामोशी की जगह आवाज भर दूं

[३]

उस परिस्थिति में
किसी और घटना के
अटने की गुंजाइश नहीं थी

समय जरा सा भी फैलता
तो फट सकता था

मैंने अपनी कुछेक चीजें निकल ली
और बाहर हो गया

Friday, May 1, 2009

वो जो इमली का पेड़ है!


वो जो इमली का पेड़
तुम्हारे घर के पास है
और जो
तेरे आते-जाते
हाथ हिलाता रहता है
जाओ जाकर गले लगा लो उसको
उसकी शाख पे तूफ़ान आया हुआ है

Thursday, April 30, 2009

कभी भी कुछ छूटता है

कभी भी कुछ छूटता है
तो तेरे छूटने जैसा हीं लगता है

जैसे तू ही छूट गयी फिर से
पर सोंचता हूँ कि कोई एक,
दो बार कैसे छूट सकता है

चीजों का छूटना
दरअसल
छूटने के उसी एक मंजर से आज भी बाविस्ता हैं
और शायद आगे भी रहेंगी

उस बार की तरह हीं
हर बार गला बुक्का फाड़ती है
आँख बहती है
सीना फटता सा है
और समंदर के किनारे ढेर सारी
सिथुए और कौडियाँ जमा हो जाती हैं

पर अजीब है ये भी कि
चीजें आज भी छूटती रहती हैं
रुकने और रोकने,
बंधने और बाँधने
और इस तरह के तमाम यत्न के बावजूद,
उनका छूट जाना आज भी होता है
जैसे कि तय रहा हो उनका छूटना

कभी यूँ भी होता है कि
हम जोड़ते हैं कुछ ऐसी चीजें
जिनके बारे में हम जानते होते है
कि वे छूटेंगी
पर हम नही रोक पाते जोड़ना
और कई बार अनजाने हीं में
जुड़ जाती है चीजें
पर सभी स्थितियों में
तकलीफ एक सी हीं होती है
जब जुड़ी हुई कोई चीज छूटती है

दरअसल
यह मान लेना तकलीफ कम कर देता है कि
मिलना, जो कि बहुत सारे गम मिटा देती है,
बहुत सारी खुशियाँ ला देती है,
छूटने की प्रक्रिया की हीं शुरुआत है
इसलिए छूटने की तकलीफ के बारे में कहते समय
मिलने की खुशी को उसमें से घटा देना जरूरी है

कई बार यूँ भी होता है
कि हम चाहते हुए भी जुड़ नहीं पाते
फिर किसी सुनसान के शिकार होते हुए
तकलीफ में जीते-मरते रहते हैं

अंततः मेरा कहना ये है कि
सिर्फ़ छूट जाने से होने वाली तकलीफ के कारण
हमें जुड़ना और जोड़ते रहना छोड़ना नही चाहिए
क्यूंकि यह तकलीफ उस तकलीफ से
छोटी होती है जो
कभी नही जुड़ने या जोड़ पाने पैदा होती है