Monday, February 2, 2009

इजहार

(कुछ कवितायें बार-बार सच होती है...)

लब्ज सुन लिए गए थे ...

कायनात की सारी आवाजों ने
उन तीन लब्जों के लिए
सारी जगहें खाली कर दी थी

होंठों पे सदियों से जमा वजन
उतर गया था

उसके भीतर कोई नाच उठा था
जो नाचता हीं जा रहा था लगातार
लगातार...

3 comments:

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत सुन्दर लिखा है।बधाई।

Himanshu Pandey said...

उल्लेखनीय प्रविष्टि.
सुन्दर रचना के लिये धन्यवाद

अनिल कान्त said...

उत्तम रचना .....सुंदर

अनिल कान्त
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति