Tuesday, June 2, 2009

जानते थे वे नही आयेंगी

वो शाम का किनारा जिसके उस तरफ तुम्हारा समंदर डूब गया था
और जिंदगी की सारी लहरें गायब हो गयी थी अचानक धूंधलके में
उसी किनारे पे मेरी ख्वाहिशें ठहर गयी थीं।

पूरा
का पूरा जिस्म झोंक दिया एक छोटे पेट के वास्ते
मुझे याद भी आईं बहुत बार, वो ठहरी हुई ख्वाहिश
और मैं भूला भी बहुत बार।


पर
जब कभी जिस्म को फुरसत मिली पेट से
देखा जरूर उस किनारे को
जिसके उस तरफ तुम्हारा समंदर डूब गया था
और उन लहरों को जो गुम हो गयी थी अचानक।

ख्वाहिशें तो वहीं ठहरी हैं आज भी
बुलाया भी नही, आवाज़ ही नही दी,
जानते थे वो नही आयेंगी!

11 comments:

निर्मला कपिला said...

sunder bhavmay abhivyakti hai badhai

ओम आर्य said...
This comment has been removed by the author.
डिम्पल मल्होत्रा said...

ख्वाहिशें तो वहीं ठहरी हैं आज भी
बुलाया भी नही, आवाज़ ही नही दी,
जानते थे वो नही आयेंगी!...eske baad sare shabad nishabad ho jate hai....

Vinay said...

अच्छी रचना!

Yogesh Verma Swapn said...

bahut gahri bhavabhivyakti, om ji aapki kavita padhne/samajhne mein compartively samay to adhik lagta hai lekin man jhoom jata hai.

shama said...

Kya comment katun...samajh nahee paa rahee...aur gehrayee abhi tak naap rahee hun...jo dang kiye jaa rahee hai!
snehsahit
shama

Manish Kumar said...

वाह डूबते टूटते रिश्तों को बेहतरीन अंदाज़ में चित्रित किया है आपने इन पंक्तियों में।

संध्या आर्य said...

ऐसा लगता है भावना मोती हो तथा शब्द डोर दोनो को बहुत ही करीने से टुटॆ हुये रिश्ते से बान्ध दिया हो ......तब जाकर यह कविता बनी हो.......फिर एक बार एक बेहद मार्मिक कविता को पढ्वाने के लिये .......बहुत बहुत आभार

admin said...

अपने दिल की आवाज को बहुत खूबसूरती से लफजों का जामा पहनाया है आपने। बधाई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }

Urmi said...

बहुत खूब! बढ़िया रचना के लिए बधाई!

Unknown said...

khwahishon ke thahrav me jism k jhonk diye jane aur pet k jawalamukhi ko shant karne k prayas me lahron ka door ho jana ,,dard ki inteha hai.......................
kavita ki vedna ...bhavuk karti hai
badhai ho !