Sunday, June 20, 2010

जब रातें सारी ख्वाब में बर्बाद होती हों !

जब कवितायें लिखना हो एक आदत
और बिना कोशिशों के छूटती जाती हों सब आदतें
लिखते वक़्त बहुत सारी पंक्तियाँ
रह जाती हों बाहर
और भींग कर गल जाती हों बारिश में

जब बैठ जाते हों हम
टेबल पर पाँव फैला कर पिता के सामने
भूल जाते हों अपने स्वभाव या संस्कार

या फिर ताक़ पे रख देते हों
बदन में इतना दर्द रहता हो
कि एक के बाद एक सारी इतवारें रहती हों दुखी

जब यादें लगातार आती हों
और लगता हो कि वे आएँगी हीं
और हार कर रोना छोड़ दिया गया हो
और यह समझ लिया गया हो
कि रिश्तों को संभालना होता है इकतरफा हीं

जब यह फर्क करना होता हो मुश्किल
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा

जब अनजानी किसी चिड़िया की सुरीली आवाज
सिर्फ इक आवाज भर हो
और कान सिर्फ उन आवाजों को
देते हों तवज्जो
जो खरीदे गए हुए हों
और बिलकुल ऐसा हीं आँख के साथ भी होता हो

जब किसी भी तरह की आवाज
खलल डालती हो
किसी भी तरह के आवाज में,
नींदें खुलने के बजाये हमेशा टूटती हों
और सुबह

सारी रात ख्वाब में बर्बाद हो जाने का
रहता हो अफ़सोस

वह बढ़ा देती है
अपना माथा और होंठ
कि चूमें जाएँ
और कवितायें घूम कर

उस तरफ चली जाती हैं
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20 comments:

sonal said...

वह बढ़ा देती है
अपना माथा और होंठ
कि चूमें जाएँ
बेहतरीन कविता जीती है आपके अन्दर

संजय भास्‍कर said...

ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.

Meenu Khare said...

बेहतरीन कविता.

सुशीला पुरी said...

'और हार कर रोना......'

kshama said...

Jab kabhi likhte hain aap,behad gahrai me utar ke likhte hain.

रश्मि प्रभा... said...

aapki kalam ke andaaj kee main kayal hun

Unknown said...

अच्‍छी कविता है आर्य जी

aradhana said...

बहुत सुन्दर कविता है... इतने सारे बिम्ब एक साथ...
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा
... ...
जब अनजानी किसी चिड़िया की सुरीली आवाज
सिर्फ इक आवाज भर हो
और कान सिर्फ उन आवाजों को
देते हों तवज्जो
जो खरीदे गए हुए हों
और बिलकुल ऐसा हीं आँख के साथ भी होता हो
और अंतिम पंक्तियाँ बेहद खूबसूरत हैं.

Smart Indian said...

बहुत सुन्दर!

पवन धीमान said...

Bahut sundar Om Ji ! Bahut samvedanshilta.. bahut gahraai.

Avinash Chandra said...

bahut hi sundar kavitaa ban padi hai.
goodh bhi..aur samajh aati hui bhi

निर्मला कपिला said...

जब अनजानी किसी ------- लाजवाब पँक्तियाँ है बधाई कविता बेहद पसंद आयी।

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

सचमुच लाजवाब कर दिया आपने.....
---------
इंसानों से बेहतर चिम्पांजी?
क्या आप इन्हें पहचानते हैं?

संध्या आर्य said...

जब सफ्फाक रंगो की कशिश मे
चाँद अपने आसमान से
उतर आता होगा
चाँदनी के आँचल मे
चला जाता होगा
नींद की गहराई मे
तब ख्वाब लौट आते होंगे
नँगे पाव , बस यू ही
बस यू ही !

वन्दना अवस्थी दुबे said...

जब बैठ जाते हों हम
टेबल पर पाँव फैला कर पिता के सामने
भूल जाते हों अपने स्वभाव या संस्कार
या फिर ताक़ पे रख देते हों
बहुत सुन्दर चित्र.

अनामिका की सदायें ...... said...

behtareen kavita.

अर्चना तिवारी said...

जब यह फर्क करना होता हो मुश्किल
कि हवाएं हिलाती हैं डालियों को
कि वे गर्मी से बेहाल होकर
खुद करती हैं पंखा
....बेहतरीन कविता

अजय कुमार said...

डूब कर लिखी गई कविता

डिम्पल मल्होत्रा said...

आपकी खूबसूरत नज़्म पढ़ के कुछ भूला सा याद आया -
बुझी हुई रख में छिपी चिंगारी सी
रीते हुए पत्र की आखीरी बूंद-सा
पा कर खो देने की व्यथा-भरी गूँज -सा..

अपूर्व said...

जब किसी भी तरह की आवाज
खलल डालती हो
किसी भी तरह के आवाज में
गहरी बात..यही फ़र्क भी होता है शोर और संगीत मे..जब कुछ सुर जो हमारी साँसों मे घुले होते हैं..उनके हमारी जिंदगी से बाहर निकल जाने पर एक शोर रह जाता है बाकी धड़कनों में किसी बेसुरे बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह..देखें तो आत्मा का मौन या साइलेंस भी एक आवाज ही है अनहद सी..और ऐसी जो किसी भी क्षीण सी भी बाहरी आवाज से टूट जाती है..

पंक्तियों के बिना लिखे ही बारिशों मे गल जाने की बात इस कविता का मूलभाव लगती है..और इतवारों के दुखी होने की बात जरूर मेरे इतवारों ने ही आपसे बताई होगी...