Saturday, May 14, 2011

मेरे किनारे मेकोंग नदी लेटी है

मेरे किनारे पे मेकोंग नदी लेटती है
यहाँ सूरज को
सिर्फ दो कदम चलकर डूबना होता है

रात भर सूरज डूबा रह कर
भले हीँ लौटता हो ठंढा होकर सुबह-सुबह
नदी सूखती जाती है थोड़ी-थोड़ी रोज

मेरे किनारे मेकोंग नदी लेटी है
मैं देर तक बैठता हूँ उसके किनारे
क्या पता कल वो हो न हो

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12 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

भाव भरे रहेंगे तो नदी भी नहीं सूखेगी।

मनोज कुमार said...

विचारोत्तेजक कविता।

Archana Chaoji said...

और जब कल
वो नही होगी तब..
सूरज कहाँ डूबेगा?
कितने कदम चलेगा?
और तब ठंडा न हो पाया तो..
और कितना जलेगा?
मैं सोचता हूँ भले ही वो जले..
पर मैं.. तब कहाँ बैठूँगा?...

M VERMA said...

निश्चिंत रहें सूरज की तपिश नदी नहीं सुखाती है..
कोई और तपिश है जो नदी सुखा रही है.

रश्मि प्रभा... said...

नदी सूखती है थोड़ी थोड़ी हर दिन ... वाह

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

खूबसूरत अभिव्यक्ति

vandana gupta said...

बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।

sonal said...

shaayd lupt ho jaayegi kisi din...

Parul kanani said...

bahut sundar!

सुशीला पुरी said...

Nadi ka ek din n hona .......! marmik !

रश्मि प्रभा... said...

http://urvija.parikalpnaa.com/2011/05/blog-post_23.html

हमारीवाणी said...

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