Sunday, November 19, 2017

मैं तुम्हारी बारिश में बहुत उपजता हूँ...

मैंने तुमसे पूछा था
कि सबसे ज्यादा क्या पसंद है तुम्हें
और तुमने कहा था-
बारिश में भींगना

मैं तभी समझ गयी थी
कि तुम प्रेम-बीज हो
भींग कर, फूट कर,
अंकुरित होकर
लहलहा कर एक दिन भर दोगे मेरे जगत को

और ठीक वैसा हीं हुआ
मेरा ये जगत लहलहा उठा है

मैं  तभी तुम्हारे साथ चल पड़ी थी
हम घूमें बादल-बादल
उड़े आकाश-आकाश 

और फिर एक लाल सुर्ख शाम को
मैंने बारिश को
जब लिया था अपने आगोश में
तब तुमने भी अपनी बाहें खोल दीं थीं

मैं उपजाऊ बनी
और तुम लहलहाए

प्रेम अब और उपजता है
प्रेम की बारिश अब और होती है
और पता नहीं इन लहलहाते खेतों को क्या हुआ है
ये भी बढ़ते हीं जा रहें हैं
न ओर, न छोर !

1 comment:

दिगम्बर नासवा said...

क्या बात ... लाजवाब ...