Saturday, December 30, 2017

कुछ है जो ख़त्म होने को है


वो जो नहीं है अब
और जिसने मंझधार वक्त के किसी छोर पर जाकर
किनारा कर लिया
उसकी गिनती एक में ख़त्म नहीं होती

मुझे नहीं मालूम कितनी आहें भरीं उसने किनारे पे बैठ कर
या नहीं भरीं एक भी
पर मैं तब भी
किनारे की तरफ तेज दौड़ कर जाती लहरों में
उसे छू कर थपथपाना चाहता था
और कहना चाहता था कि रुक जाओ
यह जानते हुए भी कि वक्त की अपनी रवायतें हैं
और यह भी कि वो रुकेगा नहीं 

उसके जाने के साथ
भीतर बहुत सारी चीजों ने  
एक साथ दूर होकर
मुझे मंझधार की उबडूब में छोड़ा 

वह प्यार था या नहीं
यह विवेचना का विषय हो सकता है
पर वह एक नहीं होता है
उसमें कई चीजें एक जगह इकठ्ठा होती हैं
और इसका पता उसके जाने के बाद हीं चलता है 

वो अब नहीं है पर बिलकुल हीं नहीं हो ऐसा नहीं है
उससे जुड़ा हुआ बहुत कुछ अभी भी है
कुछ है जो ख़त्म हो कर उस मंझधार में जीवित है
कुछ है जो खत्म होने को है
और कुछ है जो चलता रहेगा जब तक कि
वो ख़त्म नहीं हो जाता

और कुछ के बारे में यह कहना मुमकिन नहीं
कि वे कब ख़त्म होती है और कब फिर चलने लगती हैं
पर मैं उस समय में डूब कर ख़त्म हो जाने के बावजूद
उसे हीं देखता हूँ जो अब नहीं है

और वो जो अब नहीं है
वो सिर्फ बीता साल नहीं है

और उसकी गिनती एक में खत्म नहीं होती !



3 comments:

Archana Chaoji said...

उसकी गिनती एक में नहीं
एक के, कई टुकड़ों में होती है...
वो जो नहीं होकर भी सदा होता है...
अवसाद के अंधेरे में मिली ज्योती है.....

Amrita Tanmay said...

सुंदर रचा है ।शुभकामनाएँ ।

संजय भास्‍कर said...

नि:शब्द कर दिया आपकी इस कविता ने